भारतीय कला के अंतर्गत गंधार, मथुरा और अमरावती शैली का विकास
पहली शताब्दी ईस्वी में बौद्ध धर्म के प्रसार ने कलात्मक उत्साह को नवीन ऊर्जा प्रदान किया। इसके परिणामस्वरूप 3 मुख्य कला केंद्रों-पश्चिमोत्तर में गांधार, उत्तरी भारत में मथुरा और आंध्र प्रदेश के आसपास के क्षेत्रों में अमरावती का उद्भव हुआ।
गांधार क्षेत्र पंजाब से अफगानिस्तान की सीमा तक विस्तृत था। यह महायान बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र था। गांधार कला शैली का सबसे विशेष प्रतिरूप आधुनिक अफगानिस्तान में स्थित तक्षशिला और जलालाबाद में पाया जाता है। इस शैली में बुद्ध और बोधिसत्व की सुंदर मूर्तियों को निर्मित किया गया, जिन्हें ग्रीक-रोमन दैवीय चरित्रों के समरूप चित्रित किया गया था।
मथुरा कला शैली का विकास पहली और तीसरी शताब्दी ईस्वी के मध्य मथुरा शहर में हआ और इसे कुषाणों द्वारा प्रोत्साहन प्रदान किया गया। इस शैली में निर्मित बुद्ध की प्रारंभिक मूर्तियां पूर्वकाल की यक्ष मूर्तियों के प्रतिरूप पर आधारित हैं। इनमें बुद्ध को मज़बूत शरीर से युक्त दिखाया गया है। वे बाएं हाथ को कमर पर रखे हुए तथा दाहिने हाथ को अभय मुद्रा में ऊपर उठाये हुए हैं।
अमरावती शैली का विकास सातवाहन शासकों के संरक्षण में आधुनिक आंध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर स्थित अमरावती में हुआ था। यहाँ दक्षिण भारत का सबसे बड़ा बौद्ध स्तूप स्थित हैं।
एलुरु से भगवान बुद्ध की मूर्ति, लिंगराज पल्ली से धर्म चक्र आदि इस कलाशैली की कुछ उत्कृष्ट मूर्तियां हैं। गांधार, मथुरा और अमरावती कला शैली की विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
गांधार व मथुरा शैली में क्या अंतर है।
गांधार कला एक प्रसिद्ध प्राचीन भारतीय कला है। इस कला का उल्लेख वैदिक तथा बाद के संस्कृत साहित्य में मिलता है। सामान्यतः गान्धार शैली की मूर्तियों का समय पहली शती ईस्वी से चौथी शती ईस्वी के मध्य का है तथा इस शैली की श्रेष्ठतम रचनाएँ ५० ई० से १५० ई० के मध्य की मानी जा सकती हैं।
गांधार कला की विषय-वस्तु भारतीय थी, परन्तु कला शैली यूनानी और रोमन थी। इसलिए गांधार कला को ग्रीको-रोमन, ग्रीको बुद्धिस्ट या हिन्दू-यूनानी कला भी कहा जाता है। इसके प्रमुख केन्द्र जलालाबाद, हड्डा, बामियान, स्वात घाटी और पेशावर थे। इस कला में पहली बार बुद्ध की सुन्दर मूर्तियाँ बनायी गयीं।
इनके निर्माण में सफेद और काले रंग के पत्थर का व्यवहार किया गया। गांधार कला को महायान धर्म के विकास से प्रोत्साहन मिला। इसकी मूर्तियों में मांसपेशियाँ स्पष्ट झलकती हैं और आकर्षक वस्त्रों की सलवटें साफ दिखाई देती हैं।
गंधार शैली के शिल्पियों द्वारा वास्तविकता पर कम ध्यान देते हुए बाह्य सौन्दर्य को मूर्तरूप देने का प्रयास किया गया। गंधार की मूर्तियों में भगवान बुद्ध यूनानी देवता अपोलो के समान प्रतीत होते हैं। इस शैली में उच्चकोटि की नक्काशी का प्रयोग करते हुए प्रेम, करुणा, वात्सल्य आदि विभिन्न भावनाओं एवं अलंकारिता का सुन्दर सम्मिश्रण प्रस्तुत किया गया है।
इस शैली में आभूषण का प्रदर्शन अधिक किया गया है। इसमें सिर के बाल पीछे की ओर मोड़ कर एक जूड़ा बना दिया गया है जिससे मूर्तियाँ भव्य एवं सजीव लगती है। कनिष्क के काल में गांधार कला का विकास बड़ी तेजी से हुआ। भरहुत एवं सांची में कनिष्क द्वारा निर्मित स्तूप गांधार कला के उदाहरण हैं।
मथुरा में लगभग तीसरी शती ई०पू० से बारहवीं शती ई० तक अर्थात डेढ़ हजार वर्षों तक शिल्पियों ने मथुरा कला की साधना की जिसके कारण भारतीय मूर्ति शिल्प के इतिहास में मथुरा का स्थान महत्त्वपूर्ण है।
कुषाण काल से मथुरा विद्यालय कला क्षेत्र के उच्चतम शिखर पर था। सबसे विशिष्ट कार्य जो इस काल के दौरान किया गया वह बुद्ध का सुनिचित मानक प्रतीक था।
मथुरा के कलाकार गंधार कला में निर्मित बुद्ध के चित्रों से प्रभावित थे। जैन तीर्थंकरों और हिन्दू चित्रों का अभिलेख भी मथुरा में पाया जाता है। उनके प्रभावाशाली नमूने आज भी मथुरा, लखनऊ, वाराणसी, इलाहाबाद में उपस्थित हैं।
इतिहास पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि मधु नामक दैत्य ने जब मथुरा का निर्माण किया तो निश्चय ही यह नगरी बहुत सुन्दर और भव्य रही होगी। शत्रुघ्न के आक्रमण के समय इसका विध्वंस भी बहुत हुआ और वाल्मीकि रामायण तथा रघुवंश, दोनों के प्रसंगों से इसकी पुष्टि होती है कि उसने नगर का नवीनीकरण किया।
लगभग पहली सहस्राब्दी से पाँचवीं शती ई० पूर्व के बीच के मृत्पात्रों पर काली रेखाएँ बनी मिलती हैं जो ब्रज संस्कृति की प्रागैतिहासिक कलाप्रियता का आभास देती है। उसके बाद मृण्मूर्तियाँ हैं जिनका आकार तो साधारण लोक शैली का है परन्तु स्वतंत्र रूप से चिपका कर लगाये आभूषण सुरुचि के परिचायक हैं।
मौर्यकालीन मृण्मूर्तियों का केशपाश अलंकृत और सुव्यवस्थित है। सलेटी रंग की मातृदेवियों की मिट्टी की प्राचीन मूर्तियों के लिए मथुरा की पुरातात्विक प्रसिद्ध है।
लगभग तीसरी शती के अन्त तक यक्ष और यक्षियों की प्रस्तर मूर्तियाँ उपलब्ध होने लगती हैं।
मथुरा में लाल रंग के पत्थरों से बुद्ध और बोद्धिसत्व की सुन्दर मूर्तियाँ बनायी गयीं।
महावीर की मूर्तियाँ भी बनीं। मथुरा कला में अनेक बेदिकास्तम्भ भी बनाये गये। यक्ष यक्षिणियों और धन के देवता कुबेर की मूर्तियाँ भी मथुरा से मिली हैं।
इसका उदाहरण मथुरा से कनिष्क की बिना सिर की एक खड़ी प्रतिमा है। मथुरा शैली की सबसे सुन्दर मूर्तियाँ पक्षियों की हैं जो एक स्तूप की वेष्टणी पर खुदी खुई थी। इन मूर्तियों की कामुकतापूर्ण भावभंगिमा सिन्धु में उपलब्ध नर्तकी की प्रतिमा से बहुत कुछ मिलती जुलती है।
मथुरा की कला पर प्रभाव
बाह्य प्रभाव – यह शैली बाह्य संस्कृतियों से प्रभावित नहीं थी और स्वदेशी शैली के रूप से विकसित हुई थी |
प्रयुक्त सामग्री – इस शैली की मूर्तियों को चित्तिदार लाल बलुआ प्रस्तर का उपयोग करके बनाया गया था |
धार्मिक प्रभाव – तीनों धर्मों का प्रभाव था यानी हिंदू, जैन और बौध |
संरक्षण -इस कला को कुषाण शासकों का संरक्षण मिला था |
विकास का क्षेत्र – मथुरा, सोंख और कंकालीटीला में और आसपास के क्षेत्रों में विकसित हुई थी |
बौद्ध की मूर्ति की विशेषताएं – इसमें बुद्ध को मुस्कुराते चेहरे के साथ प्रसन्नचित दिखाया गया है | शरीर हष्ट-पुष्ट और तंग कपड़े पहने हुए है |चेहरा और सिर मुंडा हुआ है | सर पर उभार या जटा दिखाई गई है | बुद्ध को विभिन्न मुद्राओं में पदमासन में बैठे दिखाया गया है और उनका चेहरा विनीत भाव दर्शाता है |
मथुरा कला से सम्बन्धित अन्य ज्ञातव्य विषय
कलाकृतियों की प्राप्ति और उनका संग्रह
कलाकृतियों में पत्थर की प्रतिमाओं तथा प्राचीन वास्तुखण्डों के अतिरिक्त मिट्टी के खिलौनों का भी समावेश होता है। इन सबका प्रमुख प्राप्ति स्थान मथुरा शहर और उसके आसपास का क्षेत्र है। वर्तमान मथुरा शहर को देखने से स्पष्ट होता है कि यह सारा नगर टीलों पर बसा है। इसके आसपास भी लगभग 10 मील के परिसर में अनेक टीले हैं। इनमें से अधिकतर टीलों के गर्भ से माथुरी कला की अत्युच्च कोटि की कलाकृतियां प्रकाश में आयी हैं।
कंकाली टीला, भूतेश्वर टीला, जेल टीला, सप्तर्षि टीला आदि ऐसे ही महत्त्व के स्थान हैं। इन टीलों के अतिरिक्त कई कुंओं ने भी अपने उदरों में मूर्तियों को आश्रय दे रखा है। मुसलमानों के आक्रमण के समय विनाश के डर से बहुधा मूर्तियों को उनमें फेंक दिया जाता था। इसी प्रकार यमुना के बीच से अनेक प्रकार की प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। महत्त्व की बात तो यह है कि जहां कुषाण और गुप्त काल में अनेक विशाल विहार, स्तूप, मन्दिर तथा भवन विद्यमान थे, वहां उनमें से अब एक भी अवशिष्ट नहीं है, सबके सब धराशायी होकर पृथ्वी के गर्भ में समा गये हैं।
अमरावती केंद्र में मूर्तिकला की मुख्य विशेषतायें इस प्रकार है।
- बुद्ध के जीवन आधारित कथानक के निरूपण और जातक कथओं का प्रदर्शन
- बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियां मानव और पशु दोनों के रूप
- मूर्तिकला की संरचना अत्यधिक (ग्रीक) जटिल, अधिक विविधतापूर्णऔर गहन भावनाओं से चित्रित है शरीर को तीन झुकाब यानी त्रिभन्ग के साथ दर्शाया गया है ।
- अमरावती के शिल्प निर्माण हेतु मुख्य रुप में सफेद संगमरमर का प्रयोग हुआ है और यह शैली इक्ष्वाकु और सातवाहन वंश के शासकों के काल में विशेष फैली। पूर्णतः स्वदेशी शैली है।
यह मूर्तिकला आंध्र प्रदेश के जग्गबयापेट, नागार्जुन कोंडा तथा महाराष्ट्र में तेर के स्तूप के अवशेषों में देखी जा सकती है।
अमरावती मूर्तिकला में ज़्यादातर बुद्ध के जीवन की घटनाओें, पूर्वजन्म की कथाओं (जातक कथाओं) का चित्रण है। हाव-भाव तथा सौंदर्य की दृष्टि से अमरावती कला-शैली की मूर्तियाँ सभी मूर्तियों में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं।
इस कला में धार्मिक तत्त्वों के प्रभाव के रूप में बौद्ध का प्रभाव मुख्य रूप से दिखाई देता है जिसमें बुद्ध की व्यक्तिगत विशेषताओं पर कम बल दिया गया है। परंतु बौद्ध मूर्तियों में उनके जीवन एवं जातक कथाओं की कहानियाँ इस कला के धार्मिक पक्षों को व्यक्त करती हैं। अमरावती मूर्तिकला की कुछ मूर्तियों में स्त्रियों को उनके पाँव पूजते हुए दर्शाया गया है, यहाँ पाँवों का पूजन धार्मिक महत्त्व को व्यक्त करता है।
अमरावती मूर्तिकला में लिंगराज पल्ली से प्राप्त धम्मचक्र, बोधिसत्व तथा बौद्धमत के रत्नों को दर्शाने वाली एक गुंबजाकार पट्टी प्राप्त हुई है जिसमें बौद्ध, धम्म एवं संघ तीनों को निरूपित किया गया है।
- अमरावती मूर्तिकला में धार्मिक तत्त्वों के समावेश के साथ-साथ लोकोन्मुखी तत्त्व भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं।
- अमरावती की मूर्तिकला के माध्यम से पहली बार शारीरिक एवं भावनात्मक अभिव्यक्तियों में निकटता आई।
- अमरावती मूर्तिकला में आभूषणों की न्यूनतम संख्या स्त्रियों में आभूषणों के प्रति कम आकर्षण को इंगित करती है।
- अमरावती शैली में सजीवता एवं भक्तिभाव के साथ कुछ मूर्तियों में काम विषयक अभिव्यक्तियाँ देखने को मिलती हैं जो इसे लोकोन्मुखी बनाती हैं।
- अमरावती मूर्तिकला ने कला के माध्यम से धर्म प्रधान की जगह मनुष्य प्रधान बनने का प्रयत्न किया।
- इस परिवर्तन का मुख्य कारण भारतीय समाज का व्यवसाय प्रधान होना था, अत: इस कला पर धर्म का प्रभाव कम होने के साथ ही यह लोकोन्मुखी बनती चली गई।
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