आचार्य नंदलाल बोस के कला एवं सौंदर्यात्मक विचार

Aesthetics of Nandlal Bose

 आचार्य नंदलाल बोस के कला एवं  सौंदर्यात्मक विचार  

 आचार्य नंदलाल बोस एक समग्र शिक्षक कलाकार अध्यात्म विद्वान पुरुष थे। नंदलाल बोस का गुरुदेव रवींद्रनाथ एवं आचार्य अवनींद्र नाथ के साथ घनिष्ठ संबंध रहा है। इनके सौंदर्यआत्मक विचार भी इन्हीं के सानिध्य के साथ पलवित हुए।



 नंदलाल बोस भी प्रकृति पूजक रहे हैं तथा रविंद्र नाथ के समान इनके ह्रदय में भी करुणा, ममता इत्यादि की भावना प्रकृति के रूप में विद्यमान रही है। प्रकृति के निकट से निकटतम जाकर सुकोमलता से स्पर्श करने से आनंद की उपलब्धि होती है और सुकोमल भाव का जन्म होता है। नंद बाबू के सौंदर्य शास्त्र में प्रकृति प्रेम का उद्घोष अवश्यंभावी है।

शांतिनिकेतन के वातावरण के अनुकूल यह विचार स्वाभाविक है। शांतिनिकेतन के प्राकृतिक स्वरूप का जो स्वप्न रविंद्र बाबू ने देखा था, नंदलाल बोस ने उसे कार्य रूप दिया। वृक्षों के नीचे खुले आकाश में अध्यापन की शिक्षण प्रविधि उल्लेखनीय है। शांतिनिकेतन के ऋतु उत्सव यथा वसंतोत्सव, वर्षा मंगल, रविंद्र नाथ टैगोर जी का जन्म दिवस, इत्यादि के आयोजन नए परिवेश में विस्तार रूप में करते हुए छात्र छात्राओं में प्रकृति प्रेम की प्रेरणा देने हेतु इन्होंने कार्य किया।


अन्य कलाकार व छात्रों ने भी अपनी कला में इन ऋतु उत्सव का अंकन किया है। इस प्रकार शांति निकेतन में प्रकृति प्रेम के प्रति छात्रों को प्रेरित करते रहे हैं।कलाकारों के लिए नंदलाल बोस जी ने कई पुस्तकें लिखी जिसमें उनके सौंदर्य संबंधी विचार उद्धृत हैं। दृष्टि और सृष्टि, शिल्प चर्चा, रुपावली के वॉल्यूम 1, 2, 3, शिल्प कथा, यह सब पुस्तकें विशेष रूप से प्रासंगिक है.।



 रुपावली एक प्रायोगिक पुस्तक है जिसमें रेखा चित्रण किया गया है। शिल्पकथा व शिल्पा चर्चा भी बांग्ला भाषा में लिखे गए हैं। दृष्टि और सृष्टि पुस्तक बांग्ला में तदोपरांत हिंदी और अंग्रेजी में लिखी गई, जो प्रायोगिक व सैद्धांतिक दोनों रूपों में लाभप्रद है।

इसमें षडंग, तकनीक इत्यादि का विस्तृत वर्णन है। कला एवं शिल्प के संदर्भों की चर्चा भी इसमें की गई है । कारू शिल्प व चारु शिल्प के विषय में भी बताया गया है। कला को साधना के समकक्ष मानते हुए निरंतर अभ्यास करने को नंदलाल बोस महत्व देते थे। कला की दृष्टि के विकास के लिए नंदलाल बाबू अनेक उपाय करते थे, जो उनका निजी गुण था।

अपने साथ में वे एक थैला लेकर चला करते थे जिसे लाख टाकरे झुली कहा करते थे। लाख टाकरे झोली में राह चलते हुए वे अनेक कलापूर्ण वस्तुओं का संग्रह भी किया करते थे। यह उसी कला चेतना की एक कड़ी है। प्राकृतिक वस्तुओं की दैनिक जीवन में उपयोगिता से प्रकृति प्रेम को भी प्रेरित करना महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में नंद बाबू के जीवन से जुड़ी है।

 शिशिर के फूलों का अलंकारिक प्रयोग इसका उदाहरण है। वह कहते थे- फूलों से बात करो, देखो फूल रो रहे हैं। उसे दर्द हो रहा है। उसके रंग को देखो, ओस की बूंदों को देखो, ऐसी उक्तियां वे नव कलाकारों के हृदय को कलात्मक संवेदनायुक्त बनाने के लिए प्रयोग करते थे।

 रेखा के संदर्भ में उनके विचार भी महत्वपूर्ण है । वे आकृति जनित रेखा के महत्त्व को कलाकार की निपुणता के साक्ष्य मानते थे तथा रेखा के गुणों यथा भावप्रवणता लय, प्रवाह, इत्यादि से युक्त करने हेतु अभ्यास करने पर जोर दिया करते थे।

 एक रेखा से ही पूरे रूप का आभास कराने की कौशल को प्राप्त करने की प्रेरणा वे अपने विद्यार्थियों को देते थे। भारतीय कला भी रेखाप्रधान रही है। अजंता तथा प्राचीन लघु चित्रों की रेखाओं को प्रेरणा स्रोत मानते हुए वे रेखा की साधना पर बल देते थे।

रंग या वर्ण को उसके उपयोगिता के आधार पर कोमल, कठोर, प्राथमिक, द्वितीयक इत्यादि के रंगतों को समझाते हुए पैनी दृष्टि से अंकन करने की बात वे कहते थे।

 कोणार्क आदि की सजीव कला के लिए आत्मायुक्त शब्दों का प्रयोग करते थे। भारतीय कलाकार को भाव रस लय संवेदनशीलता इत्यादि चीजों को आत्मसात करते हुए सृजन करना चाहिए, ऐसा उनका मानना है



कला आत्मा को संस्कार देती है आत्मा का संस्कार करती है। यह मनुष्य के भीतर भाव जगा कर सत्य कर्म करने के लिए प्रेरित करती है ऐसा नंद बाबू का कथन रहा है। इस प्रकार नंद बाबू के कला चिन्तन ने अनेक विद्यार्थियों को प्रभावित किया।


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