महात्मा गांधी के कला सौन्दर्य विचार Mahatma Gandhi on Art

Mahatma Gandhi on Fine Art

कला पर महात्मा गांधी जी के विचार



कुछ साल  पहले गुजराती के प्रसिद्ध मासिक पत्र 'प्रस्थान' में 'गांधीजी और कला' शीर्षक एक लेख प्रकाशित हुआ था। उस लेख में कहा गया था—

गांधीजी ने देश में  जीवन के प्रति एक नया उत्साह पैदा किया और उस उत्साह से देश में कई तरह की जो जाग्रति हुई, उसमें कला-विषयक जाग्रति भी कुछ कम नहीं कही जा सकती—यद्यपि गांधीजी ने स्वयं इस संबंध में प्रत्यक्ष कुछ किया हो, ऐसा नहीं।


गांधीजी ने धर्मशास्त्र के गहन और विशेष अध्ययन के बिना और भाषा के गहरे अभ्यास के अभाब में भी इन दोनों क्षेत्रों में अच्छा काम किया है। गुजरात की समग्र भाषा ने जो एक नया स्वरूप धारण किया है, उसमें उनका प्रत्यक्ष हाथ है। परंतु दूसरी कलाओं के क्षेत्र में उन्होंने कोई प्रत्यक्ष काम किया हो, यह जान नहीं पड़ता।

उनके चरित्र पर रस्किन और टाल्सटाय जैसे दो प्रखर संत विद्वानों का प्रभाव पड़ा है, इसे उन्होंने भी स्वीकार किया है; परंतु इन विद्वानों के कारण उनमें कला-विषयक अभिरुचि पैदा हुई हो और इस संबंध में उन्होंने कोई ख़ास काम किया हो, इसका कहीं पता नहीं चलता।

हाँ, उन्होंने संगीत की अभिरुचि बढ़ाई और लोगों को उस ओर आकर्षित किया। इसका आरंभ एक तरह से साबरमती आश्रम में अध्यापक श्री नारायण मोरेश्वर खरे के आगमन से हुभा। नारायण मोरेश्वर संगीतकार पलुस्कर के शिष्य थे, जो पलुस्कर जी के निर्देश पर गाँधी जी के द्वारा १९१५ में स्थापित अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में होने वाली [प्रार्थना सभाओं के लिए संगीतमय धुनें तैयार किया करते थे. मोरेश्वर खरे ने लगभग 400 भजनों को संगीतबद्ध किया, बाद के दिनों में इन भजनों के संग्रह को राग - ताल विवरण सहित अहमदाबाद के नवजीवन प्रकाशन मंदिर के द्वारा "आश्रम भजनावली" नाम से प्रकाशित किया गया.   



संगीत के सिवा किसी दूसरी कला के बारे में उन्होंने किसी दिन कुछ भी कहा हो, हम नहीं जानते। यहां तक कि आश्रम के मकानों में या उनकी बनवाई हुई गुजरात विद्यापीठ की इमारत में भी किसी प्रकार की कला की चेष्टा नहीं की गई। गांधीजी की आत्मकथा में कहीं भी कला-विषयक चर्चा नहीं पाई जाती।

गांधीजी पर टाल्सटाय का संत रूप में ही प्रभाव पड़ा है, और वे संत बने हैं—कलाकार नहीं बने। इस सिलसिले में हम श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ उनकी तुलना कर सकते हैं।

गांधीजी और गुरुदेव ठाकुर ये दोनों वर्तमान संसार के दो महान व्यक्ति हैं। इनमें से एक को हम महान संत के रूप में और दूसरे को कलाकार के रूप में पहचान सकेंगे।

गांधीजी के संबंध में कदाचित यह भी कहा जा सकता है कि कला के क्षेत्र में विहार करने का उन्हें समय न मिला हो। इधर उनकी सारी मनोवृत्ति स्वराज्य में ही तन्मय होने के कारण संभव है, वह इस ओर दृष्टिपात न करते हों।

 गाँधी जी और कला  लेख को काशीनाथ नारायण त्रिवेदी जी पढ़ चुके थे, अतः इनके मन में गांधीजी के कला-संबंधी विचारों को जानने की इच्छा थी, इसलिए गत 14वीं दिसंबर को यरवदा मंदिर जाने वाली डाक में इन्होंने उनसे एक साथ ही कला पर कई प्रश्न कर डाले। 

25 दिसंबर 1930 ,को काशीनाथ नारायण त्रिवेदी को बापूजी का 'गागर में सागर' वाली उक्ति को चरितार्थ करने वाला पत्र मिला। उसमें उन्होंने कला के संबंध में जो उद्गार प्रकट किए हैं, उन पर प्रत्येक व्यक्ति को मनन करना चाहिए। 

हमारे हिंदी-संसार में सुरुचि की कमी और लोगों की स्वार्थपरता के कारण कला का बड़ा ह्रास हो गया है, इसलिए हमारे हिंदी-पाठकों को महात्माजी के विचार विशेष रूप से पढ़ने चाहिए। यहाँ प्रश्न और उत्तर दोनों दिए जाते हैं।

कला का स्थान और रूप 


प्रश्न—मनुष्य के जीवन में कला का क्या और किस रूप में स्थान है, या होना चाहिए? सच्ची कला किसमें है? आज बाज़ारों में साहित्य और चित्रकला में जो कला के नाम से पुकारा जाता है, उसमें सच्ची कला कितनी है? महर्षि टाल्सटाय के कला-संबंधी विचारों पर आपकी क्या राय है?

संगीत-कला का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है, ऐसी दशा में प्रत्येक पाठशाला, विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय में उसे स्थान क्यों न मिलना चाहिए? यदि मिलना आवश्यक है, तो किस रूप में?

सिनेमा आदि में जो बहनें नटी आदि का अभिनय करती है, उनकी मर्यादा क्या हो? आज उनके अभिनय में विशुद्ध कला है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। 

ग़रीब किसान, मज़दूर और नौकरीपेशा लोग दिन भर के परिश्रम के बाद क्या करें, जिससे उनका जीवन सुखमय और कलामय बने?


'कर्मसुकौशलम्' ही कला है


उत्तर—कला-विहीन मनुष्य पशु-समान है, पर कला किसे कहा जाए? 'कला कर्मसुकौशलम्' है। गीता के तीसरे अध्याय का योग, यह संपूर्ण कला है। 

यही बात बाह्य कला पर भी लागू होती है। जिसे करोड़ों ग्रहण न कर सकें, वह कला नहीं, पर स्वच्छंद है, योग है; फिर भले वह कला कंठ की हो, या कपड़े की या पत्थर की।

 करोड़ों लोगों का एक आवाज़ से रामधुन चलाना कला है और आवश्यक है। बहुतेरे मंदिर कलामय हैं और वह कला ऐसी है कि उसे करोड़ों ग्रहण कर सकते हैं। 

मंदिरों में पूजा-पाठादि का आवश्यकतानुसार श्रद्धापूर्वक होना कला का नमूना है। यों जहाँ समय, क्षेत्र, संयोग का प्रमाण—ख़याल—रखा जाता है, वहाँ कला है। गांधीजी ने लिखा, फ़िल्म मुझे पसंद नहीं, मैं सिनेमा में कभी गया नहीं।

विचारपूर्वक काम करने से उसमें रस पैदा होता ही है। विचारपूर्वक किया गया काम कलामय बनता है। और सच्ची कला सदा रसमय है। कला ही रस है, यों भी कह सकते हैं। यज्ञमय जीवन कला की पराकाष्ठा है। सच्चा रस उसी में है, क्योंकि उसमें से इसके नित नए झरने झरते हैं। मनुष्य उसे पीते हुए थकता नहीं, झरने कभी सूखते नहीं।  जो यज्ञ बोझ-रूप लगे, वह यज्ञ नहीं; जो मन को खटके, वह त्याग नहीं। भोग का परिणाम नाश है। त्याग का फल अमरता। रस स्वतंत्र वस्तु नहीं। रस हमारी वृत्ति में है। 

एक को नाटक के पदों में मज़ा आवेगा, दूसरे को आकाश में जो नित नए परिवर्तन होते रहते हैं, उनमें मज़ा आवेगा। 

अर्थात् रस तालीम या अभ्यास का विषय है। बचपन में रस के रूप में जिनका अभ्यास कराया जाता है, रस के रूप में जिनका तालीम जनता लेती है, वे रस माने जाते हैं।  एक राष्ट्र या प्रजा को जो रसमय प्रतीत होता है, दूसरे राष्ट्र या दूसरी प्रजा को वह रसहीन लगता है। सेवा में तो सोलह शृंगार सजाने होते हैं, अपनी समस्त कला उसमें उड़ेलनी होती है, वह है पहली चीज़ और बाद में है अपनी सेवा।

प्रश्न—संगीत और चित्रकला सीखने से कौन-कौन से गुणों का विकास होता है? विद्यार्थी के लिए इनका कितना परिचय आवश्यक है? 

उत्तर—संगीत से ईश्वर का ध्यान आसानी के साथ किया जा सकता है। संगीत और चित्रकला समस्त विश्व की एक भाषा है। संगीत से विशेषकर कंठ खुलता है और चित्रकला से हाथ या आँख खुलती है। भक्ति-परायणता सीखने के लिए पर्याप्त हो, इतना इसका परिचय आवश्यक है।

इस प्रश्नोत्तर के अतिरिक्त, गंधर्व महाविद्यालय की 'संगीत पत्रिका’ में गांधीजी ने संगीत के संबंध में लिखा है—

एक श्लोक में कहा है, संगीत-ज्ञान से शून्य आदमी, अगर वह योगी न हो तो, पशुवत् है। सच पूछा जाए तो योगी भी संगीत के बिना अपना काम नहीं चलाता। उसका संगीत हृदय-वीणा में से निकलता है, इस कारण हम उसे सुन नहीं पाते। 

योगी हृदय द्वारा भगवान का भजन करता है। हम कंठ द्वारा उसका भजन करें और दूसरे जो इस तरह उसका भजन करते हैं, उसे सुनें। यों करते हुए हम अपने हृदय में निरंतर गूँजने वाले संगीत को सुनने लगेंगे।  

गांधी जी की प्रेरणा से नन्दलाल बोस, के-एस कुलकर्णी, संखो चौधुरी, दिनकर कौशिक एवं अन्य को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विभिन्न कांग्रेस अधिवेशनो की पंडाल सज्जा का दायित्व मिला।

कलाकारों ने भारतीय समाज के जनमानस के अनुरूप सामाजिक विषयों पर मनुष्य के दैनंदिन विषयों पर चित्रण कार्य किया जिसे महात्मा गांधी जी ने अत्यंत सराहना की।  इलाशंकर गुहा के शोध अध्ययन के अनुसार शांति निकेतन कि अनेक घटनाएँ हैं जो गाँधी जी के द्वारा किये गए कलाकारों के उत्साहवर्धन को दर्शाती हैं.  सी ऍफ़ एंड्र्यूज ने कलाकार मुकुल दे का परिचय गाँधी जी से कराया. तब गाँधी जी ने उनसे अनेक चित्र बनवाए. कस्तूरबा जी का चित्र भी मुकुल जी ने बनाया.  दक्षिण के कलाकार के. वेंकेटप्पा कि प्रसंसा करते हुए गाँधी जी ने कहा- " मैं आपकी प्रतिभा से प्रसन्न हूं और आपको मेरा आशीर्वाद है; किंतु यदि आप मानव जीवन पर चरखे के प्रभाव को दर्शाती हुई चित्र बना सकें तो मुझे हार्दिक खुशी होगी. और हां, यदि यह आपको आकर्षित करता हो तो ठीक, अन्यथा कोई बात नहीं. गांधी जी कला को अपने उद्देश्यों और आदर्शों के अनुरूप देखना चाहते थे- क्योंकि उनका लक्ष्य स्पष्ट रूप में मानवतावादी था. 


महात्मा गांधी के कृतित्व से उनकी कला विषयक विचारधारा भी स्पष्ट होती है जिसका सार यह है कि जो कला समाज के उत्थान के लिए और मनुष्य के उत्थान के लिए हो वही सुंदर है।



REFERENCE स्रोत :
काशीनाथ नारायण त्रिवेदी, 1931 
पुस्तक : विशाल भारत (पृष्ठ 19)
रचनाकार : काशीनाथ नारायण त्रिवेदी
संस्करण : 1931

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