मंदिर स्थापत्य की पैगोडा शैली Pagoda style of temple architecture

मंदिर स्थापत्य की पैगोडा शैली 

 Pagoda style of temple architecture


हिन्दू मंदिर स्थापत्य शैली के अंतर्गत नेपाल और इण्डोनेशिया का बाली टापू में पैगोडा शैली प्रचलित  है। इस शैली की मुख्य पहचान इसके छत की संरचना है। इस शैली में मुख्यतः छतौं का शृंखला अनुलम्बित रूप में एक के उपर दुसरा रहता है। 
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सरल रूप में कहें तो यह चित्र में दिखाए गए पत्थरो की शिलाओं को क्रमवार एक के ऊपर एक रखी गई आकृति के तरह होती है। यद्दपि पैगोडा का संबंध हिन्दू मंदिर स्थापत्य शैली से है तथापि बौद्ध धर्म के मंदिर भी इस शैली में निर्मित हुए हैं।

अनुमान यह है कि पगोडा शब्द संस्कृत के "दगोबा" के अपभ्रंश रूप में प्रयुक्त हुआ होगा। बर्मी ग्रंथों में पगोडा श्रीलंका की  सिंहलीभाषा के  शब्द "डगोबा" का विगड़ा रूप बताया गया है और डगोबा को संस्कृत के शब्द धातुगर्भा से संबंधित कहा गया है, जिसका अर्थ है "पुनीत अवशेषों की स्थापना का स्थल"।

पैगोडा के कितने प्रकार होते हैं।


पगोडे प्राय: सूचीस्तंभीय ( या पिरैमिड आकार के), गुंबदीय या गोलाकार, चौकोर अथवा  बहुभुजीय, बुर्ज की आकृति के होते हैं। अधिकांश पैगोडा में गर्भगृह भूतल स्तर में रहता है। परन्तु कुछ मन्दिर (उदाहरण: काठमांडौ का आकाश भैरव और भीमसेन स्थान मन्दिर) में गर्भगृह दुसरा मंजिल में स्थापित है। 

कुछ मन्दिर का गर्भगृह सम्मुचित स्थल में भूस्थल से करिबन ३-४ मंजिल के उचाइ पर निर्मित होते है (उदाहरण: नेपाल के भक्तपुर जिले का न्यातपोल मन्दिर) यह मंदिर सिद्धि लक्ष्मी जी की है। इस शैली में निर्मित प्रसिद्ध मन्दिर में नेपाल का पशुपतिनाथ मंदिर, और इंडोनेशिया के बाली का पुरा बेसाकि मंदिर आदि प्रमुख है।

वियतनाम का पैगोडा


 वियतनाम की राजधानी हनोई में दिन्ह प्रांत में तुक मेट हेलमेट लोको विंग वार्ड में फो मिन्ह पगौड़ा स्थित है ।

यह हनोई के दक्षिण में ९० किलोमीटर दूर में स्थित हैं। इस पैगौड़ा के दो भाग हैं (१)फो मिन्ह शिवालय।(२)फो मिन्ह टावर। यह 24 मंजिल का है। 13 मंजिलों और 200 फुट ऊँचाई तक के पगोडे बने हैं। भारत तथा पूर्वी एशिया के पगोडों के शिखर पर एक मस्तूल पर बहुत सी राजकीय छतरियाँ लगी हुई होती हैं। संपूर्ण ऊँचाई लगभग 150 फुट होती है और भवन पत्थर, ईंट, अथवा लकड़ी का बना होता है। नीचे की मंजिल में मूर्तियों अथवा मंदिरों की स्थापना की हुई होती है। 

भारत में पगोडे प्राय: मंदिरों के द्वार पर अथवा मुख्य मूर्तिस्थल के ऊपर बनाए जाते हैं।  

भारत का प्रतिद्धतम पगोडा तंजौर में है। यह बहुत सुंदर और भारी है। इसका ऊपरी भाग लंबाकार 100 फुट का है और उसपर मूर्तिकला तक्षण का बहुत बारीक काम किया हुआ है। 

महाबलीपुरम का सप्त पगोडा जिसे महाबलीपुरम के रथ मंदिर अर्थात् सप्त पगोडा  भी कहते हैं। दक्षिण भारत मेंमहाबलीपुरम अथवा मामल्लपुरम में स्थित ‘सप्त पगोडा’ महाभारत महाकाव्य के पांडव भाइयों के रथों के रूप में निर्मित है।
 महाबलीपुरम् की वास्‍तुकला की तीन प्रमुख शैलियों का सम्‍बंध राजा मामल्‍य, उनके बेटे नरसिंह वर्मन और राजसिंह के शासनकाल से है । महाबलीपुरम् की शैली सबसे प्राचीन और सरल है जो चट्टान को काटकर बनाये गये मंदिरों में पायी जाती है । लगभग 8 वीं सती तथा उसके बाद नरसिंह वर्मन और राजसिंह वर्मन के काल में ग्रेनाइट पत्‍थर के शिला-खंडों से मंदिरों का निर्माण किया गया था । सप्त पगोडा के अन्तर्गत निम्नलिखित रथ बनें- धर्मराज रथ, भीम रथ, अर्जुन रथ, सहदेव रथ, गणेश रथ, वलैयकुट्ई रथ और पीदरी रथ

उड़ीसा प्रदेश में कोणार्क में नवीं शती ईसवी में बना सूर्यमंदिर एक काला पगोडा है। और यह हिंदू मंदिरों की भाँति बना है। इसकी केवल तीन मंजिलें शेष हैं। इसी प्रकार सफेद पैगोडा जग्गन्नाथ मंदिर को कहते हैं।

भारत के मुम्बई में बुद्ध विपश्यना मंदिर भो पैगोडा शैली की आधुनिक स्थापत्य है।

थाईलैंड- 


स्याम देश यानी थाईलैंड में पगोडा को "फ्रा" कहते हैं और यह यहां बेलनाकार बुर्जयुक्त सूचीस्तंभ होता है या पतले कुंतल शिखर युक्त एवं घंटाकार होता है। यहां वाट फ्रा अत्यंत महत्वपूर्ण पैगोडा है।

अब बात करते है चीन और जापान की। 

चीन तथा जापान के पगोडों में स्तंभ वर्गीय, बहुभुजीय, अथवा वृत्तीय आकृति का होता है। उसमें  पाँच, मंजिलें होती हैं। प्रत्येक मंजिलें पर बाहर को निकलती हुई छतें होती हैं जिनमें काँसे की घंटियाँ लटकी होती हैं। 

चीनी पगोडे प्राय: स्मारक होते हैं। ये ईंट, काचवत् चमकाए हुए खर्पर अथवा चीनी मिट्टी के बने और हाथीदाँत, हड्डी तथा पत्थर के काम से सजे होते हैं। इनकी आकृति प्राय: अष्टभुजी होती है और ये कई मंजिलों में धीरे धीरे ऊपर की ओर पतले होते चले जाते हैं। प्रत्येक मंजिल की छत किनारे पर ऊपर को मुड़ी हुई होती है और वहाँ से घंटियाँ लटका करती हैं। 
Image By Charlie fong - Own work, CC BY-SA 4.0, 
 Timber Pagoda. Fogong Monastery, Yingxian, Shanxi, 
प्रत्येक छत के कोनों में सजावटी काम भी हुआ रहता है। चीन में तीन से लेकर तेरह मंजिल तक के पगोडे हैं, परंतु प्राय: मंजिलें नौ होती हैं। किसी किसी चीनी पगोडे में प्रत्येक मंजिल को एक सीढ़ी जाती है। 
चीन में पगोडे की पद्धति भारत से गई और चीन भर में बहुत बड़ी संख्या में बने। वहाँ का सबसे अधिक आश्चर्यजनक पगोडा नैकिंग का चीनी मिट्टी का अष्टभुज स्तंभ था जो 1412 ईसवी में बना था और जो 1856 में ताइपिंगों द्वारा नष्ट कर दिया गया था।

 यह 200 फुट ऊँचा था। इसका व्यास 40 फुट था। इसकी दीवारों पर बाहर की ओर बढ़िया नीली चीनी मिट्टी के पत्थर लगे हुए थे। विविध मंजिलों में कुल लगभग 150 घंटियाँ लटकी हुई थीं। चीन में विश्वास प्रचलित था कि पगोडा से जल और वायु, फसल उपज और मनुष्यों के स्वास्थ्य एवं व्यवहार सब पर लाभदायक प्रभाव होता हैं।

 कहा जाता है कि ताइपिंगों ने इनके लाभकारी प्रभाव को मिटाने और अपनी योजनाओं को सफल बनाने के लिये चीन के अधिकांश पगोडों को यांग सी नदी के मैदानों में गिरा दिया था। 

चीन के पगोंडो में पीकिंग का तेरह मंजिला और  नौमंजिला तंगचाउ पगोडा, कैंटन का फुलहरा पगोडा और शांघाई तथा निंगपो के कुछ पगोडे विख्यात हैं।

जापानी पगोडे प्राय: लकड़ी के बने होते हैं। पगोडों के निर्माण में धातु का उपयोग कदाचित् कहीं नहीं होता।

जापान में पगोडे बौद्ध धर्म के साथ चीन से आए। अधिकांश वर्तमान जापानी पगोडे 17वीं शताब्दी के बने हुए हैं और मंदिरों में हैं। वहाँ का प्रसिद्धतम पगोडा होरियूजी मंदिर में है। यह ईसवी सन् 607 में कोरियो द्वारा बनवाया गया था। यह 100 फुट ऊँचा है। इसमें पाँच मंजिलें हैं।

 परंतु जापान में 13 मंजिलों तक के पगोडे हैं। निक्की नगर में तोशोगू मंदिर का पगोडा, 647 ई. में बना होकीजी पगोडा, 680 ई. में बना तिमंजिला यकुशीजी पगोडा और अष्टभुज चौमंजिला बेत्शो पगोडा भी विख्यात हैं।

बर्मा का पैगोडा


बर्मा में लगभग प्रत्येक गाँव में, जंगल में, मार्गों पर और प्रत्येक मुख्य पहाड़ी में पगोडे मिलेंगें।
इनमें से अधिकांश धार्मिक दानशील व्यक्तियों द्वारा बनवाए गए हैं। 

वहाँ विश्वास प्रचलित है कि इनके निर्माण से पुण्य की प्राप्ति होती है। बर्मा के पगोडे प्राय: बहुभुज की बजाय गोलाकृति के होते हैं। उन्हें डगोवा अथवा चैत्य कहा जाता है। 

वहाँ का प्राचीनतम चैत्य पगान में वुपया में है। यह तीसरी शती ईसवी में बना हुआ बताया जाता है। यहां दसवीं शती में बना म्यिंगान प्रदेश का नगकडे नदाउंग पगोडा, 
सातवीं अथवा आठवीं शती में बना हुआ प्रोम का बाउबाउग्यी पगोडा, 

1059 ई. में बना पगान का लोकानंद पगोडा, तथा 15वीं शती में बना सगैंग का तुपयोन पगोडा भी विख्यात हैं।
 परंतु सबसे अधिक महत्वपूर्ण पेगू के श्वेहमाउडू पगोडा और रंगून के श्वेडगोन पगोडा माना जाता है।

 Shwedagon Pano or Pagoda Image Courtesy 


 श्वेडगोन पगोडा पवित्रतम समझा जाता है और सबसे अधिक प्रभावोत्पादक और आकर्षक है। कहा जाता है, यह पहले केवल 27 फुट ऊँचा बनाया गया था और फिर 15वीं शती में इसे 323 फुट ऊँचा बना दिया गया।
 इसमें भगवान तथागत के आठ बाल या केश ओर तीन अन्य बुद्धों के पवित्र अवशेष स्थापित बताए जाते हैं। 

इस पूरे पगोडे पर स्वर्णपत्र मढ़ा हुआ है। इसीलिये इसे स्वर्णिम पगोडा भी कहा जाता है। रंगून में लगभग दो हजार वर्ष पुराना सूले पगोडा और प्राचीन परंतु अब पुनर्निर्मित वोटाटांग पगोडा भी महत्वपूर्ण हैं।


लंदन में भी वहाँ के क्यू उद्यान में एक विख्यात पगोडा है। इसका निर्माण चीनी नमूने पर हुआ है। इसे 1761 ई. में वास्तुविद् सर विलियम चेंबर्स द्वारा बनाए गए अभिकल्प (design) के अनुसार तैयार किया गया था।

इंडोनेशिया, थाइलैंड, चीन, जापान एवं अन्य पूर्वीय देशों में भगवान् बुद्ध अथवा किसी संत के अवशेषों पर निर्मित स्तंभाकृति मंदिरों के लिये किया जाता है। इन्हें स्तूप भी कहते हैं।


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