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By Shashi Kant Nag

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Three beautiful Paintings by S. K. Nag | Abstract Acrylic Painting on Canvas  | Home Decor Painting   Content: Dive into the mesmerizing world of abstract art with three stunning paintings by the renowned artist S. K. Nag . These works, created in oil and acrylic on canvas, showcase the artist's ability to blend emotion, color, and form into visually arresting masterpieces. 1. "Whirlscape,  Medium: Oil on Canvas,  Size: 38 cm x 48 cm, 2011 Description: "Whirlscape" captures the chaotic beauty of nature through swirling brushstrokes and an interplay of vibrant hues. The painting evokes a sense of motion, inviting viewers to immerse themselves in its dynamic energy. Shades of blue and green dominate the canvas, symbolizing harmony and transformation, while the burst of pink adds a touch of vibrancy, suggesting hope amidst chaos. Search Description: "Experience the dynamic beauty of 'Whirlscape,' an abstract oil painting by S. K. Nag. Explore thi...

"Art Development in Varanasi: A Voyage"

"Art Development in Varanasi: A Voyage" 
यूँ समृद्ध हुयी काशी की कला 

ये आलेख दैनिक समाचार पत्र अमर उजाला के पुरवाई अंक में दिनांक १३ दिसम्बर २०१० को वाराणसी अंक में प्रकाशित हुयी, जिसमे काशी की कला के विकास यात्रा को अत्यंत संक्षेप में लिखा गया है, किन्तु अत्यंत सारगर्भित और शोधपरक है.  मूल लेख इस प्रकार है जिसे सम्पादित कर प्रकाशित किया गया. 

बनारस की समकालीन कला : कल और आज 
 

बनारस की समकालीन कला का आरंभ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में दृश्यकला संकाय की स्थापना (1949-50) के साथ हुआ। एम॰वी॰ कृष्णन जी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ म्यूजिक एण्ड फाइन आर्ट्स में अध्यापक के तौर पर केरल से आये थे। ये मूर्तिकला और चित्रकला दोनो विद्याओं में पारंगत थे। धातु मूर्तिकला पद्धति का इन्हें विशेष ज्ञान था। इनके पश्चात् कृष्णजी शामराव कुलकर्णी 1967-69 में तथा पूनः 1972-78 तत्कालीन वाइस चांसलर कालूलाल श्रीमाली जी के अनुरोध पर यहाँ प्रथम डीन के पद पर आसीन हुए। मध्य के दो वर्षो में कृष्णजी स्कीडमोर कॉलेज न्युयार्क में विजीटिंग प्रोफेसर नियुक्त हुए थे। 


‘‘प्रो॰ के॰एस॰ कुलकर्णी को देशज कला प्रयोगों को प्रकाश में लाने के लिए अनेक राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय आयोजनों में भित्ति चित्रों आदि के निर्माणके लिए आमंत्रित किया गया। यही नहीं अपितु अतिथि कलाकार के रूप में भी ये विभिन्न देशों में गए और वहाँ अपनी नयी मान्यताओं के भारतीय निजत्व को प्रदर्शित किया। कुलकर्णी कीकला में रचनाओं की समकालीन विधि के लिए सादगी और कभी-कभी रंगों का विषयों के प्रारूपों में प्रयोग प्रायः सामान्य दर्शक व समीक्षक को अमूर्त का सा भ्रम देता है, परन्तु यथार्थ यह है कि प्रो॰ कुलकर्णी की कला अमूर्त बोध की नहीं है। यहाँ वे विद्यार्थियों व साथियों के बीच चेतनाशील एवं प्रगतिमय दृष्टिकोणों से अध्ययन व अभ्यास करने की प्रेरणा देते। कला व इसके प्रशिक्षण को शुद्ध भारतीय समसामयिक जामा देने के कारण प्रो॰ कुलकर्णी को अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देश की महान हस्ती के रूप में जाना जाता है।’’ 



प्रो॰ रामचन्द्र शुक्ल (जो बनारस में चित्रकला की काशी शैली व समीक्षावाद शैली के जनक माने जाते हैं) के साथ महेन्द्र नाथ सिंह, हृदय नारायण मिश्र, कमल सिंह इत्यादि ने ‘काशी चित्र शैली’ का विस्तार किया। स्व॰ महेन्द्र नाथ सिंह के अनुसार ‘‘काशी चित्रकला शैली प्राचीन भारतीय चित्रकला पर आधारित शैली है जो सदा प्रयोग तथा प्रगति में विश्वास रखती है। यह शैली एक प्रकार से आधुनिक कला की जटिलताओं से मुक्त उस मौलिक चेतना से अनुप्राणित है जो भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों को ध्यान में रख कर भारतीय चित्रकला को सुव्यवस्थित तथा प्रगतिशील दिशा की ओर प्रवृत कर देना चाहती है।’’ इस शैली की प्रथम प्रदर्शनी 14 जनवरी 1957 को भटीले कोठी, भदैनी, वाराणसी में हुआ था। इसके प्रमुख कलाकार प्रो॰ रामचन्द्र शुक्ल, महेन्द्रनाथ सिंह, कमल सिंह, उमाशंकर पाण्डय, धर्मशील चतुव्रेदी, केवलानन्द पडालिया, रीसेन हेरथ और एन॰ करुणाकर है। 
प्रो॰ रामचन्द्र शुक्ल के नेतृत्व में ही एक और कला धारा ‘‘समीक्षावाद’’ के नाम से प्रकट हुई। प्रो॰ रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार ‘‘समीक्षावाद भारत में आधुनिक कला का प्रथम स्वदेशी आन्दोलन है। समीक्षावादी कलाकार के लिए न तो शैली लक्ष्य है, न तकनीक बल्कि उनका लक्ष्य है - सरल, स्पष्ट, तीव्र प्रभावोत्पादक और समाजोन्मख अभिव्यंजना समीक्षावादी दृष्टि से श्री संतोष सिंह, वेद प्रकाश मिश्र, हृदय नारायण मिश्र व वीरेन्द्र प्रताप सिंह इत्यादि ने कार्य किए तथा इन कलाकारों के द्वारा ‘‘समीक्षावाद’’ की प्रदर्शनियाँ भी आयोजित की गयी। किन्तु र्तमान में इसका कोई प्रगति चिन्ह् नहीं दिखता है तथा कई विद्वानों ने समीक्षावाद को किसी कला आन्दोलन के रूप में स्वीकार नही किया। 
नैसर्गिकतावादी चित्रण पद्धति में कार्य करने वालों में दिलीप दास का नाम लिया जा सकता है। प्रो॰ कुलकर्णी के द्वारा श्री के॰वी॰ जेना, रामछटपार, अजीत चक्रवर्ती, प्रेमबिहारी लाल, दीपक बनर्जी, आर॰एस॰ धीर, दिलीप दास गुप्ता, ए॰पी॰ गज्जर, बलबीर सिंह कट्ट इत्यादि शिक्षक के रूप में यहाँ आये थे तथा इनके प्रयास से जो नयी पीढ़ी विकसित हुई, प्रो॰ मृदुला सिन्हा, डॉ॰ अंजन चक्रवर्ती, श्री विजय सिंह, डॉ॰ शिवनाथ राम इत्यादि के साथ मदनलाल, एस॰ प्रणाम सिंह, सत्येन्द्र बाउनी, दीप्ति प्रकाश मोहन्ती, लम्बोदर नायक, विनोद सिंह, अखिलेश राय ने बनारस की समकालीन कला को राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय ऊँचाई दी, साथ ही कला की नये पौध को भी तैयार किया। समकालीन कला के तत्वों को विकसित कर इन्होंने भारतीय कला को समृद्ध किया। इनमें से कुछ ने  दृश्य कला संकाय, बी॰एच॰यू॰ में अध्यापन कार्य किया। इनमें दीपक बनर्जी व आर॰एस॰ धीर क्रमशः छापा चित्रण और तंत्र कला के लिए जाने जाते हैं। 
कला इतिहास मर्मज्ञ प्रो॰ अंजन चक्रवर्ती मिनियेचर कला के तत्वों का समाविष्ट कर समकालीन रूप दे रहे हैं वहीं सत्येन्द्र बाउनी बनारस के मिथकों व लोकनाट्य से प्रेरित होकर जलरंग माध्यम से प्रभावोत्पादक रंग योजना व तीव्र तुलिका आघातों से संवेदना उत्पन्न करते हैं। दीप्ति प्रकाश मोहन्ती, छापाकला व चित्रकला दोनों माध्यमों में वाराणसी ‘‘घाट’’ के माध्यम से अपनी प्रयोगधर्मिता प्रदर्शित करते हैं वही एस॰ प्रणाम सिंह अपनी रचना में मूर्तन व अमूर्तन के मध्य यात्रा करते हैं। विजय सिंह अपने चित्रों में बनारस की अध्यात्मिकता और रहस्यमयता को श्यामवर्ण की योजना से निबद्ध कर अपनी कला सृष्टि प्रस्तुत करते हैं। इस यात्रा में सौन्दर्यानवेषण के चरम तक पहुँचने की कोशिश होती है। विनोद सिंह, अखिलेश राय व मदनलाल मूर्तिकला में अपनी रनाधर्मिता, पत्थर, धातु, और काष्ठ माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। इनमें मदन लाल ने अपनी कला के माध्यम से अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है। लम्बोदर नायक विगत वर्षों में अपनी रचना कई पद्धतियों में प्रस्तुत किया है। ये शान्ति निकेतन के छात्र रहे हैं और इनकी चित्रण शैली भी अनोखी है। 

वर्तमान में बनारस मं मुख्य रूप से तीन कला प्रशिक्षण संस्थान है जहां से नवाँकुर प्रतिभा ज्ञान परिमार्जन कर रहे हैं। म॰गाँ काशी विद्यापीठ के अन्तर्गत ललित कला संकाय से जुड़े डॉ॰ प्रेमचन्द्र विश्वकर्मा व प्रो॰ मंजुला चतुर्वेदी के योगदान को नकारा नही जा सकता। साथ ही काशी से ही विकसित होकर यहाँ की  कला को विकसित करने वाले नवयुवक कलाकारों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिन्होंने अर्न्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है। दृश्यकला संकाय से प्रशिक्षित यहाँ के वतमान नवशिक्षकों में ‘संजीव किशेर गौतम’ छापाकला में नवीन तकनीकी अभिकल्पना, और विश्व के सबसे बड़े छापाचित्र बनाकर काशी को गौरवान्वित किया है। सुरेश के॰ नायर, असित पटनायक, मृगेन्द्र सिंह व धर्मेन्द्र कुमार, प्रभाकर, शिवशंकर सिंह, अभिजीत पाठक, इत्यादि ने भार की समकालीन कला में अपनी दक्षता का अद्भूत परिचय दिया है। 
इन्हीं नव युवा कलाकारों में सुनील कु॰ विश्वकर्मा, अनिल शर्मा, राजीव लोचन साहू, शशि कान्त नाग, लक्ष्मण प्रसाद, पंकज शर्मा, रविशंकर, अर्जुन, मनोज पंकज, सुलेमान, मानती शर्मा, शशिकला सिंह, दिनेश यादव, पूजा मिश्रा इत्यादि प्रमुख हैं जिनके कार्यों व उपलब्धियों पर चर्चा की जा सकती है। इनमें सुनील कुमार विश्वकर्मा, चित्रकला की चीनी पद्धति में भी सिद्धहस्त हैं। अनिल शर्मा, सुनील कुमार विश्वकर्मा से भिन्नता रखते हुए एस॰ प्रणाम सिंह के शिष्यों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। डॉ॰ शिवनाथ राम की ड्राइंग से प्रेरणा पाकर भी कई कलाकार अपनी कलाऔति रच रहे हैं। इनमें सुलेमान का नाम मुख्य रूप से लिया जा सकता है। प्रयोगात्मक कला धारा में कार्य करने के लिए शशि कान्त नाग, अनिल शर्मा, रविशंकर, दिनेश यादव इत्यादि रंग संयोजन व कला तत्वों के प्रति अपनी सजगता रखते हैं वही राजीव लोचन साहू जो उड़ीसा की कला से प्रभावित हैं, ने भी काशी में अपनी कला साधना करते हुए इसे समृद्ध कर रहे हैं। 
काशी में विदेशो से कई कलाकार आकर इसे कर्मस्थली बनाये, जिसमें एलिस बोन्नर, एलेन डैनुलू, रेमंड बर्नियर, शॉ बून सून इत्यादि नाम हैं। इनमें एलिस बोन्नार का योगदान प्रमुख स्थान रखता है । कला भवन, बी॰एच॰यू॰ में संग्रहीत एलिस बोन्नार की कृतियों में भारतीय दर्शन की झलक देखी जा सकती है। 

वह कौन सी चीज है जो समकालीन कला को अन्य युगों की कला से अलग करती है, यह प्रश्न बारंबार उठता है जब हम कला की समकालीनता के बारे में सोचते हैं। मनुष्य का अंतर्तम, औद्योगिक संस्कृति से प्रभावित हुआ है और विभिन्न कलाकार इसी अनुभव की उपज है तथा रेखाओं, आकारों, रंगों, दृश्यों तथा फलक सभी के संबंध में पारम्परिक अवधारणाओं से उसने मुक्ति दिलाई है। दृश्य कलाओं में नये अन्वेषण सारी दुनिया में एक स्वीकृत पद्धति बन गये हैं और उस पद्धति के पीछे जो प्रेरक शक्ति है वह मनुष्य का बदला हुआ अन्तर मन है। इस दृष्टि से यहाँ की कलाकार कई दूसरे माध्यमों, प्रतिस्थापन, फोटो प्रतिस्थापन, ध्वनि, इत्यादि के प्रयोग से अपनी रचनाधर्मिता विकसित कर रहे हैं। 


काशी का नया चित्रकार पूर्ण रूपेण भद्र चित्रकार है जो बहु सांस्कृतिक परम्पराओं से ओत-प्रोत है जिसका अर्थ यह है कि वह परम्परानिष्ठ के बजाय विभिन्नवर्ती है। वह पुरातन समुदाय के विश्वासों और प्रतीकों से प्रभावित या संचालित नहीं है, चाहे वह अपनी संरचना में इस्तेमाल भी करता हो। इन सबके अदृश्य देवता ‘अनुभव’ है, रूपों तथा अन्तर्विषयों का अनुभव। इसमें कलाकार अपने व्यक्तिगत निर्णयों के ऊपर निर्भर होते चले गये हैं। 

                                                                             ---- डॉ. शशि कान्त नाग’




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