कला और समाज

कला और समाज  ART AND SOCIETY

कला में कलात्मकता समाज से ही आती है।
समाज की थिरकन, भावाभिव्यक्ति सब कला में दर्शित हो जाती है, सामाजिक व्यवहार हो या हो कोई दुर्घटना- कला में समाहित होकर समाज का आइना बन, कला, समाज को ही इंगित करती है।

कलाकार वाह्‌य जगत के रूप-स्वरूप, गतिविधियों एवं समाज की भावनाओं से सम्बन्ध बनाकर ही सृजन किया करता है।

 वह अपने सृजन में सामाजिक भावनाओं का मानव-वृत्तियों से सीधा सम्बन्ध रखता है। कलात्मक सृजन में इन्ही भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है, परिणाम स्वरूप कला का रूप भी विश्वव्यापी होता है। 

कलाकार की प्रतिभा, उसकी आत्मशक्ति एवं उसके कलात्मक तत्व, कला के रूप में समाज के स्वरूप और भावनाओं के साथ सामंजस्य जोड़कर, उसको व्यापक अर्थ प्रदान करते हैं।

 कला के अधिकांश विषय तत्कालीन समाज की समस्यायें ही होती है, इस उद्‌देश्य से किये गये सृजन में व्यक्तित्व गौण रूप ले लेता है ओर समाज की आवश्यकताओं का प्रतिबिम्ब उसके सृजन मे स्पष्ट झलकता रहता है। कलाकार ऐसी स्थिति में अभिव्यक्ति के माध्यम से आत्मसुख प्राप्त करना चाहता है।

कैथी कॉलवित्ज़, जो एक महान जर्मन प्रिंटमेकर व मूर्तिकार थीं, अपने समय के कलाकारों से अलग एक स्वतन्त्र और रैडिकल कलाकार के रूप में उभर कर आती है।

 उन्होंने शुरू से ही कलाकार होने के नाते समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझा और अपनी पक्षधरता तय की।

 उनके चित्रों में हम शुरुआत से ही गरीब व शोषित लोगों को पाते हैं, एक ऐसे समाज का चेहरा देखते हैं जहाँ भूख है, गरीबी है, बदहाली है और संघर्ष है!

 उनकी कला ने जनता के अनन्त दुखों को आवाज़ देने का काम किया है। उनकी कलाकृतियों में ज़्यादातर मज़दूर तबके से आने वाले लोगों का चित्रण मिलता है। 

उनका  “सौंदर्यपसंद” कलाकारों से बिलकुल भिन्नता थीं। प्रचलित सौंदर्यशास्त्र से अलग उनके लिए ख़ूबसूरती का अलग ही पैमाना था, उनमें बुर्जुआ या मध्य वर्ग के तौर-तरीकों व ज़िन्दगी के प्रति कोई आकर्षण नहींं महसूस होता।

विभीषिका चित्रण हेतु भारत मे बंगाल- दुर्भिक्ष के दौरान अकाल के प्रमुख चित्रकारों के रूप में हम ज़ैनुल आबेदिन, चित्तप्रसाद, रामकिंकर, सोमनाथ होड़, गोबर्धन आश, देबब्रत मुखोपाध्याय आदि को पाते हैं, पर यह सच है कि इनके अलावा तमाम और चित्रकार भी थे जिन्होंने अकाल पर चित्र बनाये थे।  

1943 के अकाल पर बने लगभग सभी चित्रों को हम काले और सफेद रंग में बना हुआ पाते हैं, अकाल चित्रों का यह पक्ष यूरोप के युद्ध चित्रों से भिन्न, एक राजनैतिक तेवर प्रस्तुत करते है। ज़ैनुल आबेदिन के अकाल चित्रों में हम माध्यम और विषय के बीच के रिश्ते को सघनता से महसूस कर पाते हैं। ज़ैनुल आबेदिन ने सूखी कूंची (ड्राय ब्रश) से खुरदरे कागज़ में चित्र बनाए हैं।

 इस माध्यम के चलते कमज़ोर मानव शरीर की हड्डियों के उभार के साथ साथ, रेखाओं की लयात्मकता के बावजूद उसकी खास संरचना के साथ पूरे चित्र में एक रूखापन पैदा किया है, जो पूरी तरह विषय के अनुरूप ही है। 

स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में महात्मा गांधी के आवाहन पर नंदलाल बोस तथा प्रोफ़ेसर के एस कुलकर्णी, सांखू चौधरी, देवी प्रसाद रॉयचौधरी जैसे अनेक कलाकारों ने कांग्रेस अधिवेशनो की पंडाल सज्जा का कार्य कर तथा अन्य दूसरे कलकार्यों से राष्ट्रीय चिंतन को विकसित करने में सहयोग किया । यह कलाकारों के सामाजिक योगदान को प्रदर्शित करता है।

 कला समाज से जुड़कर सौंदर्य के नए अर्थ को प्राप्त होती है तथा कलाकार का यथार्थ व्यक्तित्व भी उभर कर आता है कलाकार की निजी जीवन की चेतना उसके व्यक्तित्व की यथार्थ का निर्माण करती है। राजा रवि वर्मा के चित्रों ने समाज को गहरे स्तर पर प्रभावित किया।  यह सर्वमान्य है।

यूरोपीय चित्रकारों में फ्रांसिस्को गोया, गुस्ताव कुर्बे जॉर्ज ब्रोक, विंसेंट वैन गोग, पाब्लो पिकासो, रॉबर्ट रोसेनबर्ग, एडवर्ड मंक, सभी ने अपनी कला से सामाजिक दायित्व का निर्वहन किया और इनकी कला से इनके यथार्थ व्यक्तित्व का भी दर्शन होता है। 

एक स्वस्थ समाज में विकसित कला का सौंदर्य दर्शन भी भिन्न होता है। कला समाज का आईना भी होती है। एडवर्ड माने के चित्र तृण पर भोजन या वनगोग के चित्र आलू खाने वाले, या भारतीय कलाकार बिकास भट्टाचार्य रमेंद्रनाथ अदि के चित्र तत्कालीन समाज की सच्चाई को दिखाते हैं। 
इस प्रकार हम पाते हैं कि कला और समाज मे अन्योन्याश्रित संबंध है। 



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