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Abstract Beauty: Paintings by S. K. Nag in Oil and Acrylic

Three beautiful Paintings by S. K. Nag | Abstract Acrylic Painting on Canvas  | Home Decor Painting   Content: Dive into the mesmerizing world of abstract art with three stunning paintings by the renowned artist S. K. Nag . These works, created in oil and acrylic on canvas, showcase the artist's ability to blend emotion, color, and form into visually arresting masterpieces. 1. "Whirlscape,  Medium: Oil on Canvas,  Size: 38 cm x 48 cm, 2011 Description: "Whirlscape" captures the chaotic beauty of nature through swirling brushstrokes and an interplay of vibrant hues. The painting evokes a sense of motion, inviting viewers to immerse themselves in its dynamic energy. Shades of blue and green dominate the canvas, symbolizing harmony and transformation, while the burst of pink adds a touch of vibrancy, suggesting hope amidst chaos. Search Description: "Experience the dynamic beauty of 'Whirlscape,' an abstract oil painting by S. K. Nag. Explore thi...

अवनीन्द्रनाथ टैगोर का सौंदर्य विचार

 अवनीन्द्रनाथ टैगोर का सौंदर्य विचार  

Aesthetics of A N Tagore

Kala Guru A N tagore

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अवनीन्द्र नाथ टैगोर के काम से बहुत लोग परिचित हैं। अवनीन्द्र नाथ टैगोर आधुनिक भारत के महत्त्वपूर्ण चित्रकारों में से एक रहे  हैं। कला को लेकर उन्होंने बहुत कुछ लिखा और बोला है। सर आशुतोष मुखर्जी के आमंत्रण  पर उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में आयोजित  ‘वागीश्वरी व्याख्यान माला’ के तहत 1921 ई. से 1929 ई. के बीच कला से सम्बन्धित 29 व्याख्यान दिये थे ।

इन कला-व्याख्यानों में कला को व्याख्यायित करने के लिए आचार्य अवनीन्द्रनाथ ने अक्सर कबीर के पदों और विचारों का प्रयोग किया है।

 
कला को समझाने के लिए सबसे ज़्यादा उदाहरण उन्होंने कबीर के साहित्य का लिया । यह अत्यंत  आश्चर्यजनक तथ्य  है।  कबीर के दोहावली में कला-चिंतन को अवनीन्द्र नाथ टैगोर ने जिस रूप में पहचाना और रेखांकित किया है, उसमें कुछ का  उल्लेख  यहां है ।

पानी पियावत क्या फिरो, घर-घर सायर-बारी।
तृष्णावन्त जो होएगा, पिवेगा झख मारी।।

इस श्लोक का संदर्भ है कि  एक दिन कबीर ने देखा- एक व्यक्ति चमड़े की थैली में भर-भरकर नदी से शहर में पानी ला रहा है! उस व्यक्ति को भय है कि किसी तरह नदी सूख न जाये! यह विशाल पृथ्वी नीरस हो गयी है इसलिए वह रस बाँटना चाह रहा है। कबीर ने उस व्यक्ति को पास बुलाकर उपदेश देते हुए ये पंक्तियां कही थी।
अवनीन्द्रनाथ अपने व्याख्यान में इसका संदर्भ देते हुए कहते हैं-
यह आयोजन क्यों, जब घर-घर में रस का सागर है? तृष्णा के जगने पर वे स्वयं उत्तरदायी होकर अपनी तृष्णा को मिटाने का उपाय कर लेंगे।

मूल बात है कि  रस की तृष्णा; शिल्प की इच्छा हुई या नहीं, उपयुक्त आयोजन हुआ या नहीं- शिल्प के लिए या रस की तृष्णा को मिटाने के लिए,  यह बिलकुल सोचने का विषय नहीं है।

 विश्व भर में इस तृष्णा को मिटाने के लिए शिल्प-कर्म, उसकी प्रयोग विद्या और उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म उपदेश, नियम-कानून आदि इतनी अधिक मात्रा में उपलब्ध हैं कि किसी मनुष्य के लिए यह सम्भ्व नहीं कि वह उसका आयोजन कर सके। 

शिल्प को, रस को पाने के लिए आयोजन का थोड़ा-सा भी अभाव है, ऐसा अपनी आदिम अवस्था में, असहाय अवस्था में भी मनुष्य ने नहीं कहा; उल्टा प्रयोजन होने पर आयोजन का कभी अभाव नहीं हुआ-

 इसी को उन लोगों ने हिरन का सिंग, मछली के कांटे की बटाली, पत्थर की छोटी-सी छूरी, थोड़ा-सी गेरुवा मिट्टी, इन्हीं सबका इस्तेमाल करके, विभिन्न तरह के नक़्शे, विभिन्न शिल्पकला की रचना से प्रमाणित किया है। इस प्रकार के अनेक संदर्भ का उल्लेख अबनींद्रनाथ ने किया है।

अबनींद्रनाथ ने शायद पहली बार भारत के मूलभूत सिद्धांतों की खोज के दौरान जापानी विद्वान और दार्शनिक  ओकाकुरा के सहयोग से चीनी षडंग सिद्धांत को देखा और चीनी सिद्धांत के संख्या तीन, चार, और छह के अनुकरण के तीन सिद्धांत को उन्होंने अपने पुस्तक बागेश्वरी शिल्प प्रबंधावली में भी स्थान दिया।

     इस संदर्भ में ज्ञात हो कि चीनी षडंग और भारतीय षडंग  के साम्य से कला गुरु अवनींद्र नाथ ने भी षडंग पद्धति की रचना की थी जो बागेश्वरी शिल्प प्रबंधावली का हिस्सा है।

चीनी चित्रकला के षडंग सिद्धान्त के सूत्र संख्या 3 में रूप के विषय में लिखा गया है फॉर्म इन रिलेशन टू ऑब्जेक्ट यहां कलाकारों द्वारा रचित आकृतियां तथा प्रकृति में पाए जाने वाले वस्तुओं के रूप के बीच समन्वय की बात की गई है। 
Shadanga theory


इसी प्रकार चीनी षडंग के सूत्र संख्या चार के अनुसार कलाकारों के लिए रंग के चयन संबंधी विचार बताए गए हैं कि प्रकृति में पाए जाने वाले वस्तु के रंग के आधार पर कलाकृतियों में रंगों का चयन हो.

Tips to make painting


और सूत्र संख्या 6 को ललित कला प्रशिक्षण के लिए अनिवार्य बताते हुए उल्लेख किया गया है कि कॉपी ऑफ द क्लासिकल मॉडल यानी शास्त्रीय कला के उदाहरणों का अनुकरण करना आवश्यक है।

लावण्य के संदर्भ में अवनींद्र नाथ जी का स्पष्ट कथन है कि इसकी साधना अत्यंत जटिल है। सौंदर्य के प्रतिमान को प्रतिस्थापित करना चित्रकार की अंतर्दृष्टि पर निर्भर है और इसके लिए चित्रकार, कवि, कलाकार सभी को निरत साधना में लीन रहना चाहिए।

षडंग के अतिरिक्त इन्होंने कवि मम्मट के द्वारा लिखित काव्यशास्त्र के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक की चर्चा भी अनेक स्थान पर किया है इसमें लिखा है-   

"नियति कृत नियम रहितां हलादेयकम इम् अनन्यपरतंत्रतां,"
   नवरस रुचिरां निर्मिती मा दधती भारती कर्वेर जर्याति। 

अर्थात नियति के द्वारा निर्धारित नियमों से रहित, केवल आनंद मात्र प्राप्ति के स्वभाव वाली कवि की प्रतिभा को छोड़कर अन्य किसी के अधीन ना रहने वाली तथा नव रसों के योग से मनोहर काव्य सृष्टि की रचना करने वाली कवि की वाणी में  माँ भारती अर्थार्थ माता सरस्वती सर्वउत्कर्ष शालिनी का निवास  हैं।

Copy from the nature (Example)
विकास कुशवाहा के द्वारा निर्मित जलरंग चित्र 


 इस श्लोक में अनन्य परतंत्रताम् शब्द पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि जैसे पिंजरे में बंद पक्षी उड़ान भरने में समर्थ नहीं होते हैं। उन्मुक्तता पूरी नहीं होती है, इसी प्रकार किसी कलाकार को जबरदस्ती कार्य करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता, उसमें कलासृजन की स्वचेतना यदि स्वतः स्फूर्त नहीं होती है तो बेकार है।

 कलाकार की अंतर्निहित चेतना ही उसे प्रेरित करती हैं और तभी वह रचना धर्म के प्रति उन्मुख होता है।

अवनींद्र नाथ टैगोर के अनुसार व्यवसायिक कला और सृजनात्मक कला को पृथक कर नहीं देखा जा सकता। ललितं कला विद्याम् सन्दर्भ का उल्लेख कालिदास के सम्यक ग्रंथ में भी  मिलता है।

अवनींद्र नाथ ने तीन प्रकार के कलाकार बताए हैं ।

  • पहली श्रेणी में उन्होंने वंश परंपरागत कलाकारों को रखा है जिसमें पीढ़ी दर पीढ़ी दादा पिता पुत्र पुत्र आदि क्रमशः कला विध्या सीखते हैं।

  • दूसरे प्रकार के कलाकार निसर्ग प्रदत्त प्रतिभा के धनी होते हैं। यह स्वतः स्फूर्त कला के लिए क्रियाशील होते हैं।

  •  और तीसरे प्रकार मैं इन्होंने आत्म दीक्षित कलाकारों को रखा है जो वह अभ्यास से कला कर्म करते हैं ।

इसीलिए कालिदास ने कहा है कि कलाकार का पहले परिचय कलाकार से होता है। तब उससे उसका परिणय होता है। जो कलाकार आत्मलीन होकर कार्य करता है वही कला का अधिकारी होता है।

शिल्प के अधिकार और अनाधिकार की बात अवनी बाबू कहते हैं।
 अंतर्मन से जो कार्य नहीं किए जाते हैं वह नीरस होता है उसमें बाह्य सौंदर्य तो होते हैं किंतु उसमे कला तत्व का अभाव होता है। 

ऐसे लोग कला के अधिकारी नहीं होते, यहां पर पुनः अनन्य परतंत्रताम् शब्द का भाव स्पष्ट होता है अर्थात किसी के अधीन भी कार्य करने से अंताःप्रेरणा नहीं होती है और इससे कला के प्रति रागात्मक संबंध भी विकसित नहीं होते।

 कला और योगी की साधना में तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए अवनींद्र नाथ टैगोर ने कलाकारों के संदर्भ में निम्नलिखित विचार प्रस्तुत किए।

1 निरंतर साधनारत योगी अपनी साधना के द्वारा आनंद प्राप्त करता है किंतु कलाकार अपनी कला निर्मिती के द्वारा आनंद प्रदान करता है कलाकार आंख खोलकर ध्यान करते हैं इससे ह्रदय में रसात्मकता आती है और कला चेतना रहती है।

2 कलाकार स्वच्छंद होकर नए विषय एवं नई तकनीक से अनुशासन में रहकर कला निर्मिती करता है सहानुभूति से कला रचना करना चाहिए ऐसा अवनींद्र नाथ टैगोर का कहना है।

3 नालंब अतिविस्तारेण अर्थात अति विस्तार करने से पर्याप्त तृप्ति नहीं होती अर्थात कोई चीज संक्षेप में भी सुंदरता से व्यक्त किया जा सकता है। कम से कम रेखाओं में सुंदर तम भाव व्यंजना कलाकार को प्रस्तुत करना चाहिए।

4 आगे वे कहते हैं "आदाने क्षिप्रकारिता प्रतिदाने चिरायता''। अर्थात जैसे कलाकार प्रतिमा लक्षण का अध्ययन कर जान लेता है किंतु कला अंकन के लिए फिर भी वह चिंतित होता है कि क्या बनाएं, कैसे बनाएं इन सब बिंदुओं पर विचार के उपरांत वास्तविक से दिन प्रक्रिया में कलाकार लगता है।

5 कला कौशल के लिए कलाकार की दृष्टि को प्रखर करने की आवश्यकता पर अवनींद्र नाथ टैगोर ने बल दिया है कलाकार की किसी कृति को देखने की अभिलाषा रखते हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा अपनी दृष्टि को समृद्ध कर सकें। ओकाकुरा भी जगन्नाथ पुरी के मंदिर के दर्शन के लिए छद्म रूप कलाकार का धारण कर कलाकृतियों का दर्शन किए।

6 कलाकार अपनी कला के प्रति आस्था व श्रद्धा से कार्य करते हैं केवल व्यवसायिक या प्रचार आत्मक कार्य से  कलाकार शुद्ध नहीं माना जा सकता और वही शिल्पि  ही तो होता है।

7 कलाकार को परंपरा को ध्यान में रखकर नवीन सृष्टि करना चाहिए यह बात उन्होंने चीनी विद्वान शी- हो के द्वारा लिखी गई षडंग के आधार पर कही है।

8 सौंदर्य के लिए सरसता और सदन इत्यादि का उल्लेख करते हुए इन्होंने उसे आवश्यक बताया और कहा है- तद रम्यम यत्र लग्नम यश धृतत। अर्थात जो हृदय में सुंदर लग जाए वही सुंदर हैं।

 इन्होंने रसिक होने की बात स्वीकार की है कलाकार यदि रसिक होता है तो सुंदर से सुंदरतम रूप की कल्पना करने में अपना पूरा बल लगा देता है।


उम्मीद है कि आप को इस लेख से अपने अध्ययन में सहायता होगी ,


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