कला का देशज चरित्र National Character of Art
राष्ट्रीय चरित्र क्या है ?
राष्ट्रीय चारित्र का मूलाधार अपनापन तथा प्रेम है। यह मेरा राष्ट्र है, मैं इसका अंश मात्र हूँ, इसकी भलाई मेरी भलाई है, मैं मरूँ, चाहे परिवार डूबे, किन्तु राष्ट्र जिए, राष्ट्र अच्छा रहे- यह भाव जब उत्पन्न होता है, तब राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण होता है।
मेरे कार्य से भले ही लाभ न हो, कम से कम हानि तो न हो- यह भाव उत्पन्न होने पर चारित्र प्रकट होता है। जब यह विचार जाग्रत होता है और दिन रात राष्ट्र-चिन्तन होता है, राष्ट्र को ऊपर उठाने का, राष्ट्र को सुखी करने का, राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति के प्रति कर्त्तव्य पूर्ति का विचार होता है ।
मैं अपने बारे में न सोचूँगा, राष्ट्र सुखी है या नहीं केवल यही सोचूँगा, मैं रहा या न रहा, उससे क्या, राष्ट्र रहना चाहिये - जब इस प्रकार का भाव जागृत होता है, तब इस राष्ट्र-प्रेम से परिपूर्ण राष्ट्र-कल्पना से शुद्ध चारित्र उत्पन्न होता है - "माधव सदाशिव गोलवलकर " *श्री* *गुरुजी*"
राष्ट्रीय चरित्र को न तो देश की सम्पत्ति से आंका जा सकता है, न उसकी सामरिक शक्ति से। राष्ट्रीय चरित्र तो देश का सर्वस्व है, देश के नागरिकों का समग्र मनोबल है।
कला का देशज चरित्र या कला का राष्ट्रीय स्वरूप के संदर्भ में आज हम वार्ता करेंगे ललित कला के प्रत्येक विद्यार्थी अपने अपने स्तर पर अपनी कला साधना जारी रखते हैं। उनकी अपनी कलाकृतियों में अपने आसपास के जनजीवन या उनके दृश्य अनुभवों की झलक उनके चित्रों में होती है।
इसी प्रकार सार्वभौमिक रूप से प्रत्येक देश की कला अपना अलग महत्व रखती है। इंजिप्सन कला, मेसोपोटामिया की कला, सुमेरिया की कला, असीरियन संस्कृति की कला, सभी का अलग अलग स्वरूप उस देश की परंपरा और आदर्शों के अनुसार हैं।
ग्रीक सौंदर्य तो स्वयं में परिपूर्ण होते हैं। परिपूर्ण होते हुए भी यह संपूर्ण विश्व में उल्लेखनीय हैं । डोरिक पद्धति, आयनिक पद्धति और कोरिन्थ पद्धति के स्तंभ का आइडियल सौंदर्य देखने योग्य है। कोरिन्थ पद्धति का समावेश भारत में गांधार शैली के विकास के दौरान आया था। ग्रीक सौंदर्य का प्रभाव रेनेशा कालीन रोमन कला पर भी पड़ा था।
रोमन पोट्रेट वहां शासकों के मनोभावों के अनुसार परिवर्तित होते रहे हैं क्रूर शासकों के चारित्रिक गुणों के अनुसार पोट्रेट बनाए गए हैं- जैसे उनकी भवे तनी हुई, होठों में कटीली मुस्कान इत्यादि उनके छली एवं प्रपंची होने का प्रमाण देती है।
माइकल एंजेलो की डेविड और पियता पर ग्रीक कला का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। रोमन पेंटिंग एवं स्थापत्य में भी रोमन लोग अपने वैभव का प्रदर्शन किया करते थे चमकीले लाल रंग का प्रयोग इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। हर्कुलेनियम सभ्यता की पेंटिंग का अलंकरण परिप्रेक्ष्य इत्यादि का यथार्थ चित्रण शैली वहां की कला का प्रतिनिधित्व करती है । वहां के व्यक्ति चित्र भी अलग-अलग तथा विचित्र चरित्र चित्रों का चित्रण भी स्पष्ट रूप से रोमन कला के रूप में पहचाना जा सकता है।
ग्रीक में वीनस, एथेना, अपोलो, होसिडोन, आगस्ट्स इत्यादि की कृतियां भी वहां की संस्कृति की झलक है और वहां की कला परंपरा का प्रतिनिधित्व करती है।मैक्सिकन कला के अंतर्गत रेड इंडियन की कला का भी अपना चरित्र या लक्षण है।
स्थापत्य, वस्त्र कला, पेंटिंग में इसे हम देख सकते हैं। वहां के जगुआर देवता का चित्रण तिपाई बर्तनों के ऊपर में बना हुआ है। एक बर्तन ऐसा बनाया गया है जिसमें नर कंकाल का चित्र है, जो वहां की संस्कृति को प्रदर्शित करती है।
वहां पर सूर्य देवता का प्रसिद्ध मंदिर है जहां नरबलि देने की प्रति प्रथा है। प्रत्येक घर से एक व्यक्ति प्रतिदिन बलि दी जाने की प्रथा थी, वहां के एक्सटेट जाति में खास तौर पर यह प्रथा प्रचलित थी। इनके इस क्रूर कर्म का चित्रण उनके बर्तन बनाने की कला में दृष्टिगोचर होते हैं। उनके परंपरागत वस्त्र विन्यास भी उल्लेखनीय हैं। स्पेनिश विजय तक अर्थात 17वीं शताब्दी के प्रारंभ में इस परंपरा पर थोड़ा विराम हुआ।
चीन देश, जापान इत्यादि के चित्रों में मंगोलियन प्रभाव है। वहां के गोल चेहरे, छोटी आंख, पशु-पक्षी चित्रण, लैंडस्केप में चीनी स्याही का प्रयोग तथा बांस का चित्र शैली वहां के राष्ट्रीय चरित्र को दर्शाती है।
वैसे ही जापान के चित्रों के कोमल आकृतियां, लंबे चेहरे, छोटी आंखें, छोटे पैर, लोचदार अनोखे वस्त्र- विन्यास, केश-सज्जा,छतरी सज्जा, प्राकृतिक अलंकरण, लकड़ी के मकान आदि का चित्रण में उस देश की संस्कृति और रहन-सहन की झलक मिलती है।
Example of Japanese Paintings. |
जापानी कला की तरह ही चीन की कला है किंतु जापान की अपेक्षा चीन में कोमलता का अभाव है। वहां बांस के पेड़, साधु, प्राकृतिक दृश्य चित्रण इत्यादि में चीन के चारित्रिक गुणों की झलक मिलती है।
नेपाल में पैगोडा और थाईलैंड के पैगोडा में अंतर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। पर्शियन पेंटिंग का स्वरूप भारतीय मुगल कला की तस्वीरों में भी दिखाई देता है। भारतीय चित्रों में प्रत्येक काल के अनुसार बदलाव है जो इसकी अलग विशेषता रही है। भारत के विभिन्न प्रांत की विशेषता के अनुसार वहां की कला भी देशज चरित्र के स्वरूप को दर्शाती है ।
प्रत्येक देश के चारित्रिक गुणों अध्ययन करने के उपरांत कलाकार वहां की कला का निर्माण करते हैं ।राजस्थानी चित्र , कश्मीर के चित्र इत्यादि में भी परमपरागत रूप से उस क्षेत्र के देशज चरित्रों का समावेश है। राजा रवि वर्मा की तस्वीर आकाशगंगा में विभिन्न प्रांतों के चरित्र का उनके वास्तविक स्वरूप में दिखाया गया है। इसमें देशज स्वरूप दिखता है।
इसी प्रकार भारत के पौराणिक ग्रंथों के आधार पर निर्मित चरित्र हमारी अपनी सनातन संस्कृति को दर्शाते हैं। शंख, चक्र, गदा, पद्म देखते ही भगवान विष्णु के स्वरूप का ध्यान आता है। शिवलिंग, त्रिशूल इत्यादि को देखते ही महादेव की तथा कमल चक्र देखते ही ब्रह्मा जी की पहचान होती है ।
इस पर उन देव प्रतिमाओं की बनावट भी हमारे भारतीय चरित्र को दर्शाती है। प्रत्येक देश की कला परंपरा में प्रयोग किए गए कला रूप का विन्यास वहां के सांस्कृतिक एवं पौराणिक अथवा ऐतिहासिक धरोहरों की वाहक होती है। उनके निर्माण पद्धति में कलाकार के निजी गुण दोषों के साथ साथ उस देश के प्रति चारित्रिक अनुभव भी समाहित होते हैं।
कलात्मक दृष्टिकोण से निर्माण प्रक्रिया में उस देश में व्याप्त सामग्री और प्रचलित तकनीक एवं शैली का प्रयोग भी चारित्रिक विशेषता बन जाती है। इस प्रकार प्रत्येक देश की कला का एक राष्ट्रीय चरित्र होता है।
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