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By Shashi Kant Nag

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College of Arts and Crafts Lucknow

कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ - सन 1854  अंग्रेजी हुकूमत ने कला को बढ़ावा देने के लिए देश को पांच ज़ोन में बांट कर पांच शहरों चेन्नई,लाहौर(अब पाकिस्तान में),मुंबई, लखनऊ और कोलकाता में क्राफ्ट डिजाइन सेंटर स्थापित किये गए थे।      यह विद्यालय 1 नवंबर, 1892 को औद्योगिक डिजाइन स्कूल के रूप में स्थापित किया गया था। शुरू में विंगफील्ड मंज़िल में स्थित रही फिर  वह अमीनाबाद में और बाद में बांस मंडी में चली गई। सन् 1907 में एक औद्योगिक कॉन्फ्रेंस में प्रदेश में डिजाइन स्कूल की आवश्यकता पर विशेष रूप से विचार हुआ। 1909 में एक निर्माण का कार्य शुरू हुआ। फिर इस स्कूल का उद्घाटन 1911 में हुआ। नैथेलियन हर्ड प्रथम अंग्रेज प्राचार्य नियुक्त हुए । 1917 में इस स्कूल का नाम बदलकर राजकीय कला महाविद्यालय कर दिया गया।     जिसमे से यह कॉलेज उत्तर भारतीय केंद्र के रूप मे शुरू हुआ। 60 के दशक में इसे आर्टस कॉलेज में तब्दील हुआ। वर्ष 1973 में यह आर्ट्स कॉलेज लखनऊ विश्वविद्यालय में विलय हुआ। आज यह इमारत 111 वर्ष पुरानी है। इतना बड़ा संकाय पूरे हिंदुस्तान में कहीं नहीं ह...

Artist K S Kulkarni in Banaras Hindu University

कृष्णजी शामराव कुलकर्णी और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का

दृश्य कला संकाय

K S Kulkarni at BHU
श्री विजय सिंह, कृष्णजी शामराव कुलकर्णी व अन्य छात्र


20वीं सदी के मध्य में भारतीय आधुनिक कला की विकास-धारा को अपनी ऊर्जा से प्रगति प्रदान करने वाले  महानायक कृष्णजी शामराव कुलकर्णी (1918-1994) का व्यक्तित्व उस काल की एक नेतृत्वकारी शक्ति के रूप में उभरता है, जिसमें वे चित्रकार, मूर्तिकार, कला-समीक्षक, शिक्षाविद् और कई संस्थानों के जनक के रूप में पहचाने जाते हैं। भारतीय आधुनिक कला की रचनात्मक ऊर्जा और विधा विश्ोष के लोगों को प्रोत्साहन या संरक्षण का कार्य जिन ऊँचाइयों के साथ प्रो0 के0एस0 कुलकर्णी ने किया, वह परिवर्तनकालीन भारत में बहुत कम कलाकारों में दिखता है।

स्वभाव से मितभाषी, संजीदा, मननशील और आडम्बरहीन इस महानायक का जन्म 7 अप्रैल, 1918 को कर्नाटक के बेलगाँव जिले में हुआ था।[1] 13 वर्ष की आयु में माता-पिता दोनों का देहान्त हो जाने के बाद संघर्षों भरी दिनचर्या के साथ इन्होंने अपनी कला यात्रा जारी रखी। आजादी पूर्व के दिनों में सामान्य घरों के बच्चों को कला-संगीत जैसे क्ष्ोत्र में रुचि दिखाना अच्छा नहीं माना जाता था। पर 7 वर्ष की आयु में सांगली के कलक्टर द्वारा दिये गये प्रोत्साहन वाक्य कि “वह कलाकार ही क्यों नहीं बनता“ ने उन्हें ऊर्जावान बना दिया था।[2] 
    

16 वर्ष की आयु में सायंकालीन कला स्कूल में अध्ययन करते हुए इन्होंने 1935-42 तक जे0जे0 स्कूल ऑफ आर्ट, बम्बई से कला-शिक्षा प्राप्त की।[3] तदोपरान्त 1943 में इनका आगमन एक टेक्सटाइल डिजायनर के रूप में दिल्ली क्लाथ मिल, नई दिल्ली में हुआ। 18 महीने कार्य करने के उपरान्त में स्वतन्त्र कलाकार के रूप में दिल्ली से अपनी यात्रा शुरू की।[4]

जुलाई 1945 से वे दिल्ली पालिटेक्निक कला विभाग में अध्यापन कार्य के लिए वहाँ स्टाफ मेम्बर के रूप में शामिल हुए।[5] सन् 1946 में आपने मेरठ कांग्रेस अधिवेशन में सज्जा कार्य किया जहाँ इनकी मुलाकात शंखो चौधरी, प्रभास सेन इत्यादि कलाकारों से हुई।[6}

इस दशक में एक ओर भारत की स्वतन्त्रता की लड़ाई जोर पकड़ रही थी, वहीं दूसरी ओर भारतीय संस्कृति एवं कला की ओर अपूर्व उत्साह उमड़ रहा था।7 इस समय दिल्ली का कला क्ष्ोत्र एकदम अनुर्वर था। ऑल इंडिया फाइन आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट सोसाइटी (1927) एकमात्र संस्था थी जो दृश्यकलाओं के विकास के लिए कार्यक्रम किया करती थी। उत्तर भारत में AIFACS का वही स्थान प्राप्त था जो पूरब में इंडियन सोसायटी ऑफ ओरियंट आर्ट और पश्चिमी भारत में बांबे आर्ट सोसायटी का था।[8] कुलकर्णी भी इसकी कार्यकारिणी परिषद के सदस्य हुए। 

कुलकर्णी ने पहली बार 1945 में दिल्ली की कला प्रदर्शनी में भाग लिया, जहाँ इन्होंने महात्मा गाँधी, टैगोर और कुमार स्वामी के तैल चित्र तथा कुछ प्राकृतिक दृश्य प्रस्तुत किये थे।[9] इन चित्रों की प्रदर्शनी से दिल्ली के कला-संसार में इन्होंने अपनी दस्तक दी थी। तदोपरांत, आइफैक्स की नीतियों से असंतुष्ट होकर कला के निष्पक्ष व सर्वांगीण विकास के लिए इन्होंने 1947 में, भवेश चन्द्र सान्याल, प्राणनाथ मांगो व मूर्तिकार धनराज भगत के साथ मिल कर कलाकारों का एक विशेष समूह बनाने के लिए जुटे। 

इसकी परिणति “दिल्ली शिल्पी चक्र“ के रूप में सामने आई। इसका औपचारिक गठन मार्च 1949 के प्रथम सप्ताह में आयोजित इसकी प्रथम प्रदर्शनी के उपरान्त, 25 मार्च 1949 को किया गया। भवेश चन्द्र सान्याल को प्रथम अध्यक्ष चुना गया था तथा कृष्ण जी शामराव कुलकर्णी इसके संस्थापक सचिव बने।[10]

सन् 1948 में इन्होंने दिल्ली के कनाट प्लेस में त्रिवेणी स्टूडियो की स्थापना की।[11]  इस तरह कुलकर्णी को अपने रचनात्मक विचारों व प्रेरणाओं के लिए दो अच्छे माध्यम मिल गये। त्रिवेणी स्टूडियो (त्रिवेणी कला संगम) व दिल्ली शिल्पी चक्र। अपने उद्देश्य को पूरा करते हुए ये संगठन युवा तथा दूरदर्शी कलाकारों को दृष्टि सम्पन्न करने वाली तथा आदर्शों का पालन करने वाली संस्था बनी।

सन् 1950 में अमेरिका की विख्यात संस्था रॉकफेलर फाउंडेशन के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय कला कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए भारत से कृष्णजी शामराव कुलकर्णी को अवसर प्राप्त हुआ। इस प्रकर वे पहली बार अमेरिका गए, जहाँ इस कार्यक्रम के अन्तर्गत कला-परिचर्चा व अन्य कला गतिविधियों में हिस्सा लेते हुए 6 महीने तक अमेरिका में रुके।[12] प्रख्यात कलाविद् बलदेव सहाय इस घटना को 1951 का मानते हैं, पर USIS (यूनाइटेड स्टेट  इन्फोर्मेशन सर्विस) की पत्रिका के अनुसार यह तिथि 1949 है। इस दौरान ये लन्दन की अन्तर्राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी में सम्मिलित हुए। 1951 में इनकी एकल प्रदर्शनी का आयोजन Arthur Newton Gallery, New york,  में हुआ।[13] 

कलाविद् बलदेव सहाय उल्लेख करते हैं- “न्यूयार्क की यात्रा से कुलकर्णी जी को पश्चिम के अनेकानेक कलाकारों से मिलने, विचारों का आदान-प्रदान करने तथा ख्याति प्राप्त करने के अच्छे - बुरे तरीकों को जानने का अवसर मिला। जहाँ तक हो सका, इन्होंने वहाँ की उत्कृष्ट कलाकृतियों को देखने व समझने का प्रयास किया, कला पर विज्ञान व तकनीक के प्रभाव का अध्ययन किया, पर अपनी शोहरत स्वयं करने के लटके-झटके नहीं सीखे ।[14]

    वर्ष 1949-50 में तथा 1951 में न्यूयार्क से लौटकर इन्होंने Freemesson hall, New Delhi में भी एकल प्रदर्शनी का आयोजन किये। सन् 1952 के आस-पास इन्होंने रेलवे की शताब्दी प्रदर्शनी, प्रगति मैदान, नई दिल्ली को सजाने के क्रम में 9,90,000 वर्गफुट का विशाल म्यूरल और सीमेंट कंक्रीट के मूर्तिशिल्प बनाये थे।[15] इसी प्रकार, 1954 में कुलकर्णी जी ने अखिल भारतीय ग्रामीण उद्योग एवं खादी प्रदर्शनी और अन्तर्राष्ट्रीय भवन प्रदर्शनी, नई दिल्ली के लिए वृहद आकार के भित्ति-चित्र व मूर्तियाँ बनायीं।[16] 

इस कार्यक्रम के बाद वे एक अमेरिकी प्रशंसक चित्रकार के निमंत्रण पर पुनः अमेरिका गये और वहाँ उन्होंने ‘आर्टिस्ट इन रेसिडेंस’ के तहत 6 महीने प्रवास किया।[17] अमेरिका से लौटकर 1955 में वे ललित कला अकादमी, नई दिल्ली की वार्षिक प्रदर्शनी में सम्मिलित हुए, जिसमें उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। पुनः 1962-63 व सन् 1965 में इन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया। सन् 1961 से 1964 तक इन्होंने दिल्ली के स्कूल ऑफ टाउन प्लानिंग एण्ड आर्किटेक्चर में अध्यापन कार्य किया।[18] इस दौरान सन् 1965 तक इनकी कई प्रदर्शनी का आयोजन विश्व के अनेक देशों में सम्पन्न हुआ। साथ ही ये कई अन्तर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों में हिस्सा लिये।[19] 

सन् 1950 से 1965 तक प्रो0 के0एस0 कुलकर्णी चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट के अन्तर्राष्ट्रीय बाल चित्र प्रतियोगिता के निर्णायक मंडल में भी रहे[20]  त्रिवेणी कला संगम, नई दिल्ली के स्टूडियो में कार्य करते हुए 1966 में यहाँ अपनी एकल चित्र प्रदर्शनी का आयोजन किया। यहीं से उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला एवं संगीत विभाग के प्रधानाचार्य पद हेतु 26 जनवरी, 1966 को अपना आवेदन प्रस्तुत किया था।[21] 

इस समय उनकी आयु 47 वर्ष 9 महीने थी। इस नियुक्ति के लिए 24-8-1966 को हुए साक्षात्कार के बाद इनका चयन किया गया। पर इस चयन प्रक्रिया के दौरान बी0एच0यू0 अधिनियम 1966 में संशोधन हुआ, जिसके अन्तर्गत सारे शैक्षणिक विभागों को संकाय व संकाय-प्रमुख के अन्तर्गत व्यवस्थित किया गय। इससे प्रधानाचार्य का पद समाप्त हो गया था। अतः विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी-परिषद की बैठक 28-12-1966 में के0एस0 कुलकर्णी को प्रोफेसर ऑफ पेंटिंग के पद पर नियुक्त करने का निर्णय लिया गया।[22] 

कुलकर्णी जी ने विश्वविद्यालय के इस निर्णय को स्वीकार करते हुए 5 मई, 1967 को वाराणसी आये । 23 
तब यहाँ संगीत एवं ललित कला विभाग एक साथ हुआ करता था और वाराणसी का कला परिदृश्य पारम्परिक रूप से बंगाल की पुनरुत्थानवादी कला, बनारस कलम और पारम्परिक देशज कला की धाराओं से युक्त था। स्थानीय कलाकारों के द्वारा काशी चित्र शैली के नाम से परम्परागत व लघु चित्र परम्परा की पुनरावृत्ति की जा रही थी। इन कलाकारों ने आधुनिक कला को एक जटिलता के रूप में देखा था। इस समूह से अलग बनारस के अन्य कलाकार यथा बैजनाथ जी को पारंपरिक कला का अच्छा ज्ञान था और वे उसी परम्परा का निर्वहण कर रहे थे। नंद बाबू के शिष्य मनमथ दास भी बंगाल परम्परा का पालन कर रहे थे ।

वैसे में कृष्णजी शामराव कुलकर्णी के कला सम्बन्धी आधुनिक विचार व प्रस्तुति इन स्थानीय कलाकारों के लिए असहनीय साबित हुआ। बाद के दिनों में ये कलाकार कुलकर्णी के प्रति विरोधात्मक गतिविधियों में संलग्न रहे। कुलकर्णी जी ने कला विद्यार्थियों के मध्य शनैः शनैः आधुनिक कला के विचारधारा को प्रसारित किया। देश-विदेश के भ्रमण से प्राप्त अनुभवों को वे कक्षा के छात्रों को बताते थे। 

प्रारम्भिक दो वर्षों में उन्हों यहाँ की कला परिस्थितियों को आत्मसात करने का प्रयास किया। फिर 1969 में इन्हें स्किडमोर कॉलेज,, न्यूयार्क, यू0एस0ए0 के चित्रकला व एशियन अध्ययन विभाग के विजिटिंंग प्रोफेसर के पद पर आमंत्रित किया गया।[24] अतः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से अवकाश लेकर वहाँ गये और 1972 तक वहाँ कला-शिक्षा दी। श्रुतियों से ज्ञात है कि कुलकर्णी जी विश्वविद्यालय से अवकाश लेकर नहीं, बल्कि परित्याग कर न्यूयार्क गये थे। इस दौरान उन्होंने कई प्रदर्शनी का आयोजन वहाँ के विभिन्न गैलरियों में किया।[25]

अब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का प्राध्यापक का पद पुनः रिक्त हो गया था और विश्वविद्यालय प्रशासन विज्ञापन प्रकाशित कराने के उपरान्त भी योग्य व्यक्ति नहीं पा सके थे।[26] अतः चयन समिति की सलाह पर व कार्यकारिणी परिषद की बैठक 27 सितम्बर, 1970 के अनुसार पुनः कृष्णजी शामराव कुलकर्णी को नियुक्त करने के ध्येय से दिनांक 18/19 दिसम्बर 1970 को उन्हें एक निवेदन पत्र प्रेषित किया गया। 

इस पत्र में कुलकर्णी जी के द्वारा स्कीडमोर कॉलेज, न्यूयार्क के लिए वर्ष 1970-71 तक के अनुबंध का हवाला देते हुए पुनः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आने की आशा की गई थी। साथ ही, उनकी तनख्वाह भी उच्च श्रेणी के वेतनमान 1600-1800 के अन्तर्गत रु0 1800/- प्रतिमाह देने की पेशकश भी की गई थी। कुलकर्णी जी ने इस पत्र के जवाब में 1 जुलाई, 1972 से पुनः कार्यभार ल्ोने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन को आश्वासन दिया और नियत तिथि को कार्यभार ग्रहण कर लिया।[27]

अब वे चित्रकला विभाग के विभागाध्यक्ष, प्रथम संकाय प्रमुख व प्रोफेसर तीनों थे। इनके कार्यकाल में, सन् 1973 में चित्रकला, मूर्तिकला और वाणिज्य कला में स्नातकोत्तर (M.F.A.) पाठ्यक्रम भी शुरू हुए। यहाँ आने के उपरान्त वे संकाय के विकास के साथ छात्र-छात्राओं के मानसिक विकास के लिए भी कई प्रयास किये। दृश्य कला संकाय को अलग प्रतिष्ठित करने के लिए भी उन्होंने तत्कालीन कुलपति श्री कालू लाल श्रीमाली के समक्ष प्रस्ताव रखा था। वर्तमान दृश्य कला संकाय व इसके अन्तर्गत के कई भवनों का निर्माण इनके कार्यकाल में हुआ। साथ ही दृश्यकला संकाय के सर्वांगीण विकास के लिये नये व्याख्याताओं की नियुक्ति के रूप में मानवीय ऊर्जा को संग्रहीत करने की दिशा में कदम बढ़ाये।

इसके लिए उन्होंने बनारस के बाहर देश के विभिन्न क्ष्ोत्रों में कार्य कर रहे मेधावी तथा अपने विषय के विश्ोषज्ञ लोगों को प्राथमिकता दी। उनके इस कार्य में कुलपति ने भी सहयोग किया। इस प्रकार उनके अथक प्रयास से, श्यामल दास गुप्ता, अर्जुनजी प्रयागजी गज्जर तथा प्रेम बिहारी उर्फ पम्मीलाल एप्लायड आर्ट विभाग के लिए, अजीत चक्रवर्ती एवं बलबीर सिंह ’कट्ट’ मूर्तिकला विभाग के लिए, दिलीप दास गुप्ता, चित्रकला विभाग के लिए, दीपक बनर्जी ग्राफिक्स के लिए, धन्नीलाल वोहरा फोटोग्राफी के लिए के0वी0 जेना मूर्तिकला विभाग में पॉटरी के लिए तथा जयशंकर मिश्र व हृदय नारायण मिश्र म्युरल के लिए नियुक्त किये गये। फिर पुनः चित्रकला विभाग में रामचन्द्र शुक्ल, रवीन्द्रनाथ मिश्र इत्यादि नियुक्त किये गये।

इन अध्यापकों के साथ मिलकर कुलकर्णी जी सदैव छात्रों के विकास के लिए तत्पर रहे। छात्रों की आशंकाओं, रुचियों और जरूरतों को ध्यान में रखकर वे प्रोत्साहन का उपाय करते। वे आवश्यकतानुसार आर्थिक सहयोग भी किया करते थे। कुलकर्णी जी अपने अध्यापन-काल में परीक्षा के समय का इस प्रकार निर्धारण करते थे कि परीक्षक के रूप में देश के विख्यात व विभिन्न विद्याओं के श्रेष्ठ कलाकारों का एक साथ मिलन होता था। इस प्रकार एक उत्सव जैसे माहौल के निर्माण से छात्रों के उत्साह में भी वृद्धि होती थी। परीक्षक के रूप में प्रायः दिनकर कौशिक, शंखो चौधरी, रिचर्ड बार्थोलोम्यू, रामकिंकर बैज, नारायण श्रीधर बेन्द्रे, के0जी0 सुब्रहमण्यिम, जे0 अप्पासामी, रतन परिमू इत्यादि नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।


प्रो0 कुलकर्णी जे0जे0 स्कूल के छात्र होने के बावजूद भी अकादमिक जटिलताओं में विश्वास नहीं करते थे और अपनी कला शिक्षा में भी सांस्कृतिक परम्पराओं के साथ-साथ कलाकार के निजी व्यक्तित्व व उसके परिवेश को बराबर महत्व देते थे। उनका कहना था- “दृश्य कला को केवल संस्कृति के द्वारा ही समझा जा सकता है।“[28]

प्रो0 कुलकर्णी के इस कथन से उनका राष्ट्रीय चरित्र दृष्टिगोचर होता है। पूरे राष्ट्रीय परिवेश में इस प्रकार का समान चरित्र केवल शान्तिनिकेतन व बंगाल स्कूल के अग्रणी कलाकार व महान कला शिक्षक ’नंदलाल बोस’ में दिखायी देता है। आनन्द केंटिश कुमारस्वामी ने कहा है- “वह व्यक्ति सच्चे मायनों में राष्ट्रीय नहीं हो सकता, जिसे अपने देश की संस्कृति-साहित्य, कला और संगीत में अर्थ न दिखाई दे।’’[29] 

अपने शोध के दौरान हमने प्रो0 कुलकर्णी के द्वारा शिक्षण संबंधी कुछ सिद्धान्तों को प्राप्त किया। हालांकि कुलकर्णी ने इन सिद्धान्तों को छात्र-छात्राओं पर जबरन आरोपित करने की कोशिश नहीं की, वरन् तकनीकी कौशल के लिए इसे अनिवार्य बताया। जैसा कि उनके वक्तव्य से ज्ञात होता है-

“मेरी केवल यही इच्छा है कि हमारे अन्दर वह भावी दृष्टि और समझ विकसित हो, जिससे हम घटनाओं की प्रवृत्ति को परिकल्पित कर सकें और ऐसी स्थिति उत्पन्न कर सकें जिसमें एक सजग मन कार्यरत हो सके तथा हम अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकें- ऐसा विकास, जिसमें इस देश में पाये जाने वाली दृश्यकलाओं में जो कुछ भी उत्कृष्ट हों, उस पर चिन्तन स्वतः सन्निहित हों।[30]


दृश्य कला संकाय के छात्रों के हित में व कलाकार्यों के विकास हेतु स्लाइड शो, वृत्त-चित्र फिल्म प्रदर्शन व शैक्षणिक प्रदर्शन के लिए कई राष्ट्रीय ख्यातिनाम व विदेशी कलाकारों को संकाय में आमंत्रित कर कुलकर्णी जी ने छात्र-छात्राओं के मध्य कई कार्यक्रम किये। इन कार्यक्रमों से कुछेक छात्र आंशिक रूप से अवश्य लाभान्वित हुए होंगे, पर ज्यादातर के मध्य पुर्वाग्रहवश यह व्यंग्य और गपशप के लिए एक विषय के रूप में लिया जाता।

कुलकर्णी जी अपने अनुशासनिक प्रबंधन व वैश्विक सोच के कारण शुद्ध बनारसी ढाँचे में ढले व्यक्तियों व छात्रों से मधुर संबंध नहीं कायम कर सके। हालांकि वे सभी से समान व्यवहार रखने की कोशिश अवश्य किये, किन्तु इनके स्वयं का वैश्विक चरित्र इनके स्थानीय संबंधों को स्थायित्व नहीं दे सका। 

यह सार्वभौम सत्य है कि कोई व्यक्ति जहाँ रहता है, वहाँ के अच्छे-बुरे कई अनुभवों को प्राप्त करता है तथा ये अनुभव भी उसकी रचनात्मकता को प्रभावित करते हैं साथ ही, प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित व कई साहित्यकारों, रचनाकारों, ज्ञानियों व बुद्धिजीवियों की जन्मस्थली व प्रेरणास्रोत इस वाराणसी की आबोहवा में फैली बादशाहत, मस्ती, अक्कड़पन व फक्कड़पन का अपना मिज़ाज है। 

पर, कुलकर्णी जी इस मिज़ाज में शामिल नहीं हो पाये और वाराणसी के अपने कार्यकाल में इन्हें कई हृदयाघात सहन करने पड़े।[31] शंखो चौधरी ने भी अपने लेख में उल्लेख किया कि बनारस के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला विभाग में कुलकर्णी विपरीत परिस्थितियों को अकेले  संभाल रहे थे । 

अन्ततः सन् 1978 में ये दृश्यकला संकाय से सेवानिवृत्त होकर पुनः दिल्ली चले गये। इस पूरे कार्यकाल में इन्होंने विश्वविद्यालय व छात्रों के लिये अपना अमूल्य योगदान दिया। आज इनके कई छात्र देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में अपनी सेवा दे रहे हैं। वर्तमान दृश्य कला संकाय में भी इनके छात्र अपनी सेवा से कला विकास में योगदान कर रहे हैं।


यह शोध आलेख प्रथम बार "शोध पत्रिका शोधदृष्टि वर्ष 1 अंक 4 अक्टूबर-दिसम्बर २०१० में पृष्ठ सं १०५-११२ पर मुद्रित हुयी, सर्वाधिकार कॉपीराइट लेखक के पास सुरक्षित है. शैक्षणिक उद्देश्य से लेखक का सन्दर्भ देते हुए उपरोक्त शिक्षण सामग्री अप्रकाश्य उपयोग के लिए प्रयोग किया जा सकता है

प्रस्तुतकर्ता : डॉ शशि कान्त नागअसिस्टेंट प्रो ललित कलाडॉ विभूति नारायण सिंह परिसरगंगापुरमहात्मा गाँधी काशी विद्यापीठवाराणसी 

सर्वाधिकार कॉपीराइट लेखक के पास सुरक्षित है. शैक्षणिक उद्देश्य से लेखक का सन्दर्भ देते हुए उपरोक्त शिक्षण सामग्री अप्रकाश्य उपयोग के लिए प्रयोग किया जा सकता है.

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