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By Shashi Kant Nag

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कला और व्यक्तित्व, यथार्थ और परिवेशीय आधार

कला और व्यक्तित्व, यथार्थ और परिवेशीय आधार

Art and Personality, Reality and Ambient Basis

व्यक्ति का पूरा स्वभाव और चरित्र ही व्यक्तित्व कहलाता है

आप जैसे व्यक्ति हैं वही आपका व्यक्तित्व है और वह आपके आचरण, संवेदनशीलता और विचारों से व्यक्त होता है। इसी प्रकार एक अन्य जगह लिखा गया है कि किसी व्यक्ति का पूरा स्वभाव और चरित्र ही व्यक्तित्व कहलाता है। आधुनिक मनोविज्ञान का बहुत ही महत्वपूर्ण और प्रमुख विषय है-व्यक्तित्व। 




किसी व्यक्ति की केवल वाह्य आकृति या उसकी बातें या चाल-ढाल उसके व्यक्तित्व के केवल अंश मात्र हैं। ये उसके सच्चे व्यक्तित्व को प्रकट नहीं करते। व्यक्तित्व का विकास वस्तुत: व्यक्ति के मन के गहन स्तरों से संबंधित है। 

इसलिए मन और उसकी क्रियाविधि के बारे में स्पष्ट समझ से ही हमारे व्यक्तित्व का अध्ययन प्रारंभ होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ विशेष गुण या विशेषताएं होती हैं, जो दूसरे यव्यक्ति में नहीं होतीं। इन्हीं गुणों और विशेषताओं के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति की अभिव्यक्ति और कला एक दूसरे से भिन्न होता है। 



मनुष्य के व्यक्तित्व की पहचान उसके बातचीत करने के ढंग से होती है। भले ही कोई व्यक्ति कितना ही सुंदर हो, परंतु वाणी में कर्कशता या रूखापन हो, तो वह कभी किसी को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकता। 

इसके विपरीत सामान्य-सा दिखने वाला व्यक्ति यदि सौम्य है और उसकी वाणी में मिठास है तो वह सहज ही सबको अपनी ओर आकर्षित कर लेगा।

विंसेंट वनगोग अपने प्रिय मित्र  का ऐसा चित्र बनाना चाहते थे जिसमें उनके मित्र का उदार और सौम्य व्यक्तित्व का दर्शन हो।

 उन्होंने स्वयं लिखा है मैंने उसके सौम्य स्वरूप को दर्शाने के लिए उसके शुभ्र और दीप्तमान चेहरे को कैनवस के मध्य में अंकित किया औऱ पृष्ठभूमि में सामान्य दीवार अंकित करने के बजाय गहरे नीले रंग से आच्छादित किया। 


अब मेरे मेरे मित्र का चेहरा ऐसा दिख रहा था जैसे शुभ्र नील आकाश में चमकता तारा। 

इस प्रसंग में वनगोग ने व्यक्तित्व चित्रण किया। कला हमारे व्यक्तित्व का भी परिष्कार करती है।
माइकेल एंजलो के द्वारा किया गया सिस्टाईन चैपल का भित्ति चित्र ने एंजलो के व्यक्तित्व में आध्यात्मिक भावों का संचार किया।



राजा रवि वर्मा के द्वारा भारतीय देवी देवताओं के चरित्रों का चित्रण करने से उनके व्यक्तित्व में असाधारण परिष्कार हुआ।
और साथ ही समाज के लोगों के व्यक्तित्व भी प्रभावित हुआ। 


कला और यथार्थ                                                                            

इसे भी पढ़ें : पेस्टल रंग चित्रण का इतिहास


जीवन को ऊंचा उठाना और सुंदर से सुंदरतम बनाना ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। जीने की कला जानने वाले ही यथार्थ में जीवन का आनंद उठाते हैं।  पशु के जीवन में कोई कला नहीं रहती, मात्र सहज प्रवृत्ति होती है। जीने की कला बुद्धि से आती है। केवल प्रकृति या प्रवृत्ति से नहीं।

मुंशी प्रेमचंद कहते हैं कि ''कला केवल यथार्थ की नक़ल का नाम नहीं है, कला दिखती तो यथार्थ है,पर यथार्थ होती नहीं है। उसकी ख़ूबी यही है कि यथार्थ मालूम हो।”


Acrylic painting by Dutch Artist Tzalf  Sparnaay 

1870 के बाद से भारतीय कला व्यवहार में उल्लेखनीय परिवर्तन आया। यथार्थवादी पहलु पर बल दिया, और भारतीय प्राचीन सिद्धांतो व आदर्शवादिता को त्याग दिया गया जिसमें यह प्रयास किया जाता है कि किसी विचार को सार्थक रूप में प्रस्तुत किया जाए। 

यथार्थवाद की सैद्धान्तिक अभिव्यक्ति प्रस्तुत किए जाने का प्रयास किया गया। बम्बई और कलकत्ता के कला विद्यालयों में प्रशिक्षित कलाकारों के समग्र वर्ग के लिए यथार्थवाद की सैद्धान्तिक अभिव्यक्ति एक नया मंच बन गई। 

 ये कलाकार न केवल आकृतियों  के प्रकृतिवादी प्रस्तुति में प्रशिक्षित किए गए अपितु इन्हें एक नए माध्यम-तैल रंग के कुशल प्रयोग का ज्ञान भी दिया गया। प्रकृति वाद, या प्राकृतिक नैसर्गिकता वादी पद्धति के यथार्थवादी कलाकार है-मंयोशा पीठावाला, पोस्टोनजी बोमन जी, अन्टोनियो जेवियर त्रिनदाड, महादेव विश्वनाथ धुरंधर, सवाला राम लक्ष्मण हलदंकर, जेमिनी प्रकाश गांगुली और हेमेन्द्रनाथ मजूमदार।

फ्रांस के कलाकार ग्यूस्ताव क़ुर्बे ने जिस प्रकार यथार्थवाद की परिकल्पना रखी उसने कला क्षेत्र में क्रांति उत्पन्न कर दी। वस्तुतः दो प्रकार के यथार्थ होते है। एक जो दिखाई देता है जिसमें हम आकार, प्रकार, संरचना, बनावट आदि देखते हैं।


औऱ दूसरा जिसे हम अनुभव करते हैं। यह मन के धरातल पर होता है । जैसे कोई व्यक्ति वास्तव में शारिरिक बनावट के आधार पर कुरूप, क्रूर और हिंसक दिखाई देता है। 

अक्सर बच्चे ऐसे व्यक्तियों के दर्शन मात्र से डर जाते है। परंतु स्वभाव उस व्यक्ति का अत्यधिक उदार और प्रेमपूर्ण हो सकता है। यह यथार्थ का मनोवैज्ञानिक आकलन  है।  भारतीय कलाकार विकास भट्टाचार्या की कृतियाँ सामाजिक यथार्थ का प्रतिविम्ब है। उनकी प्रमुख कृति दो भाई, दो बहनें, और चापाकल का उदघाटन ऐसी ही प्रतिनिधि रचना है। 

कला का परिवेशीय आधार

प्रत्येक स्थान की कला परंपरा या शैली स्थानीय परिवेश या सामाजिक वातावरण से पोषित पल्लवित और प्रभावित होती है। बदलते सामाजिक परिवेश से कल संबंधी मान्यताएं और तकनीक भी बदलते रहते है।

 ऐतिहासिक काल के मनुष्य ने जंगलों और जल द्रोणियो के पास रहते हुए वहां के आसपास की वस्तुओं घटनाओं आदि का चित्रण किया।  



 इसी प्रकार बाद के दिनों में भी हम देखते हैं तो सिंधु घाटी सभ्यता या मेसोपोटामिया की सभ्यता में इनके द्वारा निर्मित कलाकृतियों में तत्कालीन सामाजिक परिवेश की झलक मिलती है ।

साथ ही यह भी ज्ञात होता है की उस सामाजिक परिस्थिति के अनुसार कलाकार की सृजन के लिए क्या क्या चुनौतियां थी।

 भारतीय परंपरा में भी प्राचीन गुफा चित्रों से लेकर पांचवी छठी शताब्दी के पाषाण शिल्पों में देखें या विकास के बढ़ते क्रम में मुगल चित्र शैली कंपनी स्कूल या भारत के स्वतंत्रता के परिवर्तन काल में भारतीय कला के स्वरूप में, तकनीक में, पद्धति में क्रमशः बदलाव होते रहे हैं। 


भारत विभाजन के दर्दनाक परिवेश में कुछ कलाकारों को मन के गहरे तल तक प्रभावित किया। सतीश गुजराल प्राणनाथ मांगो आदि कलाकारों की कृतियों में विभाजन की विभीषिका स्पष्ट दिखाई देती है। इसी प्रकार बंगाल के भी भीषण अकाल का भावपूर्ण चित्र चित्र प्रसाद के रेखांकन मैं दृष्टिगोचर है।
 



मौर्य काल की शाही कृतियों को यदि हम देखते हैं तो ज्ञात होता है किसी विशेष उद्देश्य से चाहे वह धर्म प्रचार हो या राज्य सत्ता के सूचक इन कृतियों का निर्माण हुआ । 


बौद्ध कला में भी बौद्ध धर्म के प्रति आस्था प्रचार प्रसार आदि दृष्टव्य होता है। इन सब उदाहरणों से स्पष्ट होता है की कैसे सामाजिक परिवेश हमारी कला को प्रभावित करती है और हमारी कला से किस प्रकार सामाजिक परिवेश प्रभावित होता है। बदलते समय के साथ जब जब मनुष्य वैश्विकता की बात करते हैं तो हमारी कला में भी वैश्विक स्वरूप के दृष्टिगोचर हैं साथ ही कलाकार का व्यक्ति भी वैश्विक मान्यता प्राप्त करता है.  भारतीय कलाकार अनीश कपूर आज पूरे वैश्विक नागरिक के रूप में और एक वैश्विक कलाकार के रूप में जाने जाते हैं।


 गुस्ताव कुर्बे को सामाजिक यथार्थवादी कृतियों के निर्माण के कारण उन्हें सत्ता से विद्रोह करने का दंड भुगतना पड़ा और देश निकाला तक दे दिया गया भारत से ही देखें तो मकबूल फिदा हुसैन जैसे वरिष्ठ कलाकार को सामाजिक विद्रोह का सामना करना पड़ा और सामाजिक परिवेश में अस्वीकृत कृतियों के कारण देश से निकाला गय।



इस प्रकार हम कह सकते हैं कि परिवेश के आधार पर कला विकसित होती है पुष्पित होती है पल्लवित होती है और नष्ट होती है।

इस लेख और आधारित वीडियो लेक्चर आप हमारे चैनल Art Classes with Nag Sir और देख सकते हैं । 

निसंदेह हमारे इस वीडियो लेक्चर के द्वारा आप तो अपने प्रश्न का समाधान मिला होगा और दृश्य कला की परीक्षाओं के लिए आपको सहायता होगी.



नमस्कार 

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