Fundamental of Indian Arts
भारतीय कला की अवधारणा
भारत में कला के दो रूप प्राचीन काल से स्पष्ट होते हैं। पहला व्यवसायिक और दूसरा स्वांता सुखाय। जिसे कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार हम कारू कला और चारू कला के नाम से जानते हैं। दोनों तरह की कला की अवधारणा प्राचीन काल से वर्तमान तक अपनी स्थिति बनाए हुए हैं।
व्यवसाईक कला के अंतर्गत बहुधा प्रचलित पोट्रेट पेंटिंग (व्यक्ति चित्र) बनाने की अवधारणा भी इसी में समाहित है। प्राचीन काल से ही लोग स्वेच्छा से व्यक्ति चित्रण किया करते थे और यह कार्य स्त्री और पुरुष दोनों वर्ग के लोग बनाते थे। धनाढ्य वर्ग के लोग तथा जन सामान्य भी इस कार्य को समान रूप से करते थे।
इसके उदाहरण हमें कई प्राचीन ग्रंथों में प्राप्त होते हैं ।
भागवत पुराण में उषा अनिरुद्ध प्रकरण में चित्रलेखा का वर्णन है जो उषा के स्वप्न में देखे गए पुरुष का चित्र बनाकर उषा को देती है तो उषा को अत्यधिक प्रसन्नता होती है।
कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध की तस्वीर बनते ही उषा उसे पहचान लेती है। इस कथानक से सिद्ध होता है कि समाज में स्त्रियां भी इस विद्या में पारंगत हुआ करती थी। इस प्रसंग में पोट्रेट चित्र का उपयोग मिलन के लिए किया गया।
महाकवि भास की रचना स्वप्नवासवदत्ता में पोट्रेट पेंटिंग किए जाने का वर्णन प्राप्त होता है। जो स्त्री और पुरुष दोनों के द्वारा किया जाता था।
अभिज्ञान शाकुंतलम् जो कालिदास की रचना है इस ग्रंथ में राजा दुष्यंत के द्वारा शकुंतला के मनोभावों समेत तस्वीर बनाने का वर्णन किया गया है शकुंतला के तस्वीर में प्राण संचार हुआ ऐसा प्रतीत होता है।
भारतीय चित्रकला का विशिष्ट गुण है सजीवता, जिसका उल्लेख अभिज्ञान शकुंतलम में प्राप्त होता है। महाकवि हर्ष रचित रत्नावली और वाण भट्ट रचित कादंबरी में भी भाव गम्य तस्वीरें बनाए जाने का उल्लेख है।
साधारणतः व्यक्ति चित्र या पोट्रेट पेंटिंग मनोविनोद के लिए भी बनाए जाते थे। शिल्प शास्त्र के अनुसार शयन कक्ष में भी एक चित्रशाला हुआ करती थी जो नितांत निजी हुआ करती थी। जिसमें पति पत्नी या प्रेमी प्रेमिका अपने शौक से पेंटिंग बनाया करते थे। जिनके विषय व्यक्ति चित्र विशेष रूप से बनाए जाते थे कभी-कभी प्राकृतिक दृश्य या अन्य संयोजन इत्यादि भी बनाए जाने का प्रशन इन ग्रंथों में प्राप्त होता है।
वारवनिता या गणिकायें शौक से चित्रण करती थी किंतु उनके व्यवसायगत कार्य किए जाने का उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। एक और तथ्य है कि ऐसा कदापि नहीं है की सभी कलाकार चित्र कला में निपुण हुआ करते थे। मास्टर आर्टिस्ट या निपुण कलाकार कुछ ही होते थे।
कौटिल्य रचित अर्थशास्त्र में अनेक कलाओं का वर्णन है। तथा कलाकारों की स्थिति का भी वर्णन विस्तार से किया गया है।
कलाकार को वहां कारीगर या शिल्पी कहा गया है। कारू शिल्पी तथा चारु शिल्पी शब्द का उल्लेख मिलता है। कारू शिल्पी व्यवसाई कलाकार को कहा जाता था तथा चारू शिल्पी स्वांता सुखाय कला कर्म किया करते थे। कलाकारों को शारीरिक दंड देने की मनाही थी अन्यथा कलाकार को शारीरिक क्षति पहुंचाने वाले को दंडनीय माना जाता था।
कौटिल्य के अनुसार कारीगरों को सIमाज में बहुत ऊंचे स्थान पर नहीं बिठाया जा सकता समाज के आर्थिक स्तर को श्रेणी बंद किया गया कलाकार को राजा के द्वारा पुरस्कृत करने का भी प्रावधान था कलाकारों को जागीर इत्यादि भी पुरस्कार में प्राप्त होते थे।
कलाकारों को देश देशांतर में आमंत्रित किया जाता था तथा उनकी सेवा ली जाती थी वानभट्ट के हर्षचरित में इस बात का उल्लेख किया गया है । भारतीय चित्रकार अपनी कृतियों पर नाम भी नहीं अंकित करते थे यद्यपि कुछ एक श्रेष्ठ कलाकारों के नाम का उल्लेख उस समय के साहित्यकार लोग अपनी रचनाओं में किया करते थे।
महाकवि भवभूति रचित उत्तर रामचरित्र ग्रंथ में अर्जुन नामक निपुण चित्रकार का उल्लेख है उत्तररामचरित ग्रंथ आठवीं शताब्दी में लिखा गया। इसी प्रकार तिलक मंजरी नामक ग्रंथ, जो धनपाल द्वारा लिखा गया है, उसमें गंधर्वक नामक चित्रकार का वर्णन है। भवभूति के अनुसार अर्जुन ने राम के जीवन की प्रमुख घटनाओं के भित्ति चित्र किया। जैसे श्री राम का बनवास, जटायु प्रकरण, स्वर्ण मृग प्रकरण, पंचवटी के दृश्यों का चित्र यथा सीता हरण का दृश्य इत्यादि का उल्लेख भवभूति ग्रंथ में वर्णित है। तिलक मंजरी 12 वीं शताब्दी के इस ग्रंथ के अनुसार गंधर्वक चित्रकार व्यक्ति चित्र के साथ साथ विभिन्न प्रकार के अन्य चित्र भी बनाया करते थे।
दक्षिण भारत के मंदिर जो 13वीं 14वीं शताब्दी में बनाए गए हैं उन मंदिरों में बने भित्तिचित्र में कहीं-कहीं चित्रकारों के नाम का उल्लेख है।
जैसे हॉयसल मंदिर, मदुरई का मीनाक्षी मंदिर इत्यादि में विशेष रूप से कलाकारों के नाम का उल्लेख उस समय के तत्कालीन राजाओं के द्वारा किया गया। कलाकारों के द्वारा किए गए कार्यों का वर्णन शिल्प शास्त्र के अनुसार राजाओं के द्वारा किए जाने का उल्लेख प्राप्त होता है।
समरांगण सूत्र जो राजा भोज ने लिखा राजा भोज परमार वंश के राजा थे उसमें भी इस प्रकार का उल्लेख प्राप्त होता है। विष्णु धर्म उत्तर पुराण के अध्याय चित्रसूत्र में मूर्तियां शिल्प शास्त्रीय परंपरा और नियम के अनुसार यानी प्रतिमा विज्ञान के अनुसार बनाए जाने का निर्देश है देवी देवताओं की मूर्तियों के लिए खास तौर से प्रतिमा विज्ञान का पालन करने का निर्देश प्राप्त होता है।
यह नियमबद्ध मूर्तियां सभी के लिए कल्याणकारी मानी गई है।
दोषपूर्ण मूर्तियों के निर्माण के संदर्भ में ऐसा कहा गया है कि इस तरह के निर्माण से समाज में अमंगल होता है और दोषपूर्ण कृतियां पूजा के उद्देश्य से नहीं होती हैं।
शुक्रनीति सार शुक्राचार्य के द्वारा लिखा गया है। इस ग्रंथ में शिल्प शास्त्रीय परंपरा में मूर्ति निर्माण करने से जगत का कल्याण होता है।
ऐसा बताया गया है कुछ मूर्तियां चीरकालिक होती है। कोई एक पक्षीय होती है या पाक्षिक मूर्तियां होती है। एक दिवसीय, त्रि-दिवसीय वार्षिक और क्षणिक प्रतिमाओं के निर्माण का वर्णन है।
क्षणिक प्रतिमा के लिए प्रतिमा विज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन जो मूर्तियां चिरकालिक होती है, दीर्घकाल के लिए बनी होती है या कह सकते हैं कि लंबे समय तक रखने के लिए बनाई जाती है वह सिर्फ शास्त्रीय नियमों के अनुसार ही बनाना चाहिए। ऐसा निर्देश दिया गया है। इस नियम का पालन परम आवश्यक माना गया है।
शुक्रनीति-सार ग्रंथ में कला के मेथड एंड मैटेरियल पर भी विशेष ज्ञान दिया गया है और विस्तार से उसका उल्लेख इस ग्रंथ में प्राप्त होता है।
इस प्रकार भारतीय कला की जो अवधारणा इसके प्राथमिक उद्देश्य से स्पष्ट होती है।
कला के उद्देश्य प्रायः दो हुआ करते थे जिनमें एक व्यावसायिक और दूसरा मन को आनंद प्रदान करने के लिए, संतोष प्रदान करने के लिए हुआ करती थी।
भारतीय कला कि अवधारणा का एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष है- "प्रतीकों का उपयोग"। सामान्य लोगों की भलाई के लिए और जटिल साहित्यिक विचारों को सरल तरीके से समझने की दृष्टि से कला में प्रतीकों का उपयोग किया जाता रहा है जिन्हें सामान्य जीवन में शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए, चक्र गति का एवं कमल का फूल पवित्रता और ज्ञान का प्रतीक है, जबकि गाय, अन्नपूर्ण, पोषण और वैभव का प्रतीक है। शंख अच्छी ध्वनि का प्रतिक है। विशिष्ट अर्थ और विचारों को व्यक्त करने के लिए देवी - देवताओं की आकृतियों में अस्त्र-शस्त्र और अलंकरण के रूप में इन प्रतीकों उपयोग किया जाता है।
इसके अलावा नाना प्रकार के चित्र और प्रतिमा का निर्माण उद्देश्य भिन्न-भिन्न होता है। ऐसा भी प्रतीत होता है।
"भारतीय कला की
मौलिक अवधारणा" कुल मिलाकर, धर्म के चिंतन पर आधारित रही है, जो कला में प्रयुक्त विषयों, रूपांकनों और प्रतीकों में दिखाई देती है।
भारतीय कला धर्म के साथ गहराई से जुड़ी हुई है, इसमे मानव कल्याण से सम्बंधित जटिल विचारों को
व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का प्रयोग है, और अपने जीवंत रंगों और सूक्ष्म डिजाइनों के लिए जानी जाती
है। यह मानवीय अभिव्यक्ति का एक सुसंस्कृत, समृद्ध और रूप है जो देश के विविध
प्रकार के इतिहास, विश्वासों और सांस्कृतिक
परंपराओं को दर्शाता है।
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