नाट्यशास्त्र के व्याख्याकार शंकुक का अनुमितिवाद

अनुमितिवाद दर्शन के जनक श्री शंकुक  

 श्री शंकुक का नाम सौन्दर्य शास्त्र के अंतर्गत भरतमुनि के नाट्यशास्त्र को लेकर रस सिद्धांत की व्याख्या और टिपण्णी के लिए  विख्यात है. इनके द्वारा की गयी व्याख्या को अनुमितिवाद के नाम से जानते हैं, यध्यपि आज यह अप्राप्य  है.
"भरतमुनि के रस सिद्धांत को यदि आपने पढ़ा है तब आप इसे आसानी से समझ सकते हैं"

भूमिका 

श्री शंकुक, भरतमुनि रचित नाट्यशास्त्र के एक व्याख्याकार थे जिनका उल्लेख अभिनवभारती में मिलता है यध्यपि उनके तर्क को इस ग्रन्थ में स्वीकार नहीं किया गया है। इनके अनुसार;  "दैवी पात्रों के स्थिरभावों का नाटक में अनुकरण ही रस में बदल जाता है" जबकि, अभिनेता अनुकरण मात्र करते हैं, और दर्शक स्थिरभावों का अनुमान लगाते हैं।  उन्होंने शुरुआत में ही उत्पत्ति के सिद्धांतों और सृजन की समृद्धि को अस्वीकार कर दिया।      
श्री शंकुक भारतीय दर्शन के अंतर्गत न्याय सिद्धांत के तर्क और ज्ञान-मीमांसा से बहुत प्रभावित प्रतीत होते हैं।  इनके अधिकांश सिद्धांत की स्थापना भट्टलोलट के रस-सिद्धांत की आलोचना पर की गई थी क्योंकि उन्होंने लोलट के अधिकांश प्रयासों के बारे में अधिक विचार नहीं किया था।

शंकुक का दर्शन 


शंकुक के अनुसार विभाव आदि से स्थाई भाव का आकलन  होता है। स्थाई भाव की मौजूदगी नाटक में एक्टिंग  के द्वारा होती है और अभिनय अनुकरणात्मक है यानी इसमे नकल होती है। शंकुक ने अभिनय पक्ष पर बल देते हुए कहा कि रति एवं शोक (उदाहर्णार्थ) आदि का शाब्दिक प्रयोग पर्याप्त नहीं क्योंकि स्थाई भाव की झलक  शब्दों के द्वारा कहने  मात्र से नहीं होती; परंतु, अभिनय में होती है। यानी हम जब अभिनय देखते हैं तो उसमें हमें रस प्राप्त होती है, स्थाई भाव की महसूस करते हैं किंतु शाब्दिक रूप में या शब्दों में यदि लिखा हुआ हो तो वहां कुछ भाव नहीं होता।
 नाटक के प्रसंग में अभिनय का वही अर्थ है जो काव्य या कला के प्रसंग में व्यंजना ( मन के भाव प्रकट करने कि क्रिया या प्रयास को व्यंजना कहते हैं ) का । अभिनय की कलात्मकता के द्वारा भाव की व्यंजना होती है। अतः स्थाई भाव का अंदाजा काव्यात्मक या कथानात्मक ना होकर अभीनेय  अर्थार्त प्रदर्शन से मानी गई है। शंकुक उपचित स्थाई भाव को रस ना मान कर अनुक्रियामान स्थाई भाव को रस मानते हैं अर्थात जिसकी अनुक्रिया किया जा सके। जो कोई काम दिखता हो, एक्टिविटी दिखती हो, उसमें रस है । अनुकरण की गई या कला में व्यक्त की गयी रति  (स्थायी भाव ) ही श्रृंगार है।

जो अभिनेता अपनी अनुकरण करके किरदार को अभिनीत करता है। जैसे कोई ड्रामा आर्टिस्ट राम, कृष्ण आदि की प्रतीति को न्याय दर्शन के अनुमान के आधार पर व्याख्या  करते हुए प्रस्तुत करता है।
 इसे शंकुक ने लौकिक अनुमान से विलक्षण माना है। "चित्र तुरंग न्याय" का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं जिस प्रकार चित्र में बना घोड़ा वास्तविक घोड़ा ना होते हुए भी घोड़ा कहा जाता है जो शुद्ध भ्रांति या मिथ्या ज्ञान से भिन्न है। यह एक कलाजन्य प्रतीति है जो सामान्य प्रतिति से भिन्न है।

Philosophy of Shankuka on natyashastra
Turag means Horse.

 उसी प्रकार अभिनेता के द्वारा मूल पात्र जैसे- श्री राम, कृष्ण इत्यादि के रूप के अभिनय-प्रस्तुति करता है तो झूठ होने पर भी उसे मिथ्या नहीं कही जा सकती क्योंकि यह अलौकिक, विलक्षण एवं कलाजन्य  प्रस्तुति होती है। शंकुक समाजिक यानी दर्शकों या सामान्य लोगों के द्वारा रस की प्रतीति को स्वीकार करते हैं किंतु इसे अनुमान की क्रिया मानते हैं।

शंकुक के रस सिद्धांत

इस सिद्धांत की शक्ति यह है कि इन्होंने सर्वप्रथम कला प्रतीति को सामान्य प्रतीति से उच्च और विलक्षण माना है। इन्होंने मूल पात्र और कवि निबद्ध पात्र में जो ग़लतफ़हमी थी उसका स्पष्टीकरण करते हुए अनुकार्य के वास्तविक रूप को कवि निबद्ध पात्र के रूप में प्रस्तुत किया।

शंकुक के सिद्धांत का महत्व इस दृष्टि से और भी बढ़ जाता है कि इन्होंने रस निष्पत्ति प्रक्रिया में भट्टलोलट की अपेक्षा सामाजिक को अधिक महत्व दिया। शंकुक के सिद्धांत पर आक्षेप करते हुए कहा गया है कि रस अनुकरण रूप में नहीं हो सकता। 
 शंकुक के सिद्धांत की सबसे बड़ी सीमा रस के अनुमान की कल्पना है। साहित्य आलोचकों के अनुसार, अनुमान तो बुद्धि की क्रिया है । अनुमान किसी भी प्रकार से प्रशंसादायक नहीं हो सकता क्योंकि यह निश्चयात्मक नहीं होता।

निष्कर्ष:-
1.   विभाव और स्थायी भाव  के बीच संबंध को इन्होने स्पष्ट किया।  श्री शंकुक ने कहा कि यह केवल विभावों के माध्यम से है कि दर्शक उस अभिनेता में एक स्थायी का अनुमान लगा सकते हैं जो कि मौजूद नहीं है।

2. वे कहते हैं; रस की अनुभूति की प्रक्रिया एक तार्किक अनुमान है।  श्री शंकुक के अनुसार, रस का अनुभव एक अनुमान के माध्यम से होती है जिसमें विभाव, अनुमापक होते हैं और रस अनुमाप्य होता है।

3. स्थायी भाव वस्तुतः सच्ची और स्थायी भावनाएँ हैं जिनका कलाकार अनुकरण करते हैं। स्थायी भाव का  अनुकरण रस प्राप्ति की ओर ले जाता है।  अभिनेताओं को विभिन्न प्रकार कि बोली बोलने की कला में प्रशिक्षित किया जाता है, और वे अपने कृत्रिम चरित्रों के माध्यम से स्थिर भावों की नकल करते हैं।  अंत में, अभिनेताओं के द्वारा की जाने वाली नकल के माध्यम से दर्शक रस का आनंद लेते हैं।

4. अनुमान की अनुभूति अलग है; श्री शंकुक इसे "चित्र-तुरग-न्याय" की सादृश्यता का उपयोग करके प्रदर्शित करते हैं कि यह अन्य प्रकार की अनुभूति से अलग है जो अधिक समृद्ध रूप से ज्ञात हैं।

5. दर्शकों की वास्तविक स्थिति को ऊँचा उठाना उनके सिद्धांतों में से एक था, जिसके बारे में भट्ट तांता और बाद के अन्य आलोचकों ने कड़ी आपत्ति व्यक्त की।  उन्हें यह बहुत असहनीय लगा कि 'रस' को स्थायी की नकल के रूप में देखा गया। 
 नकल के लिए श्री शंकुक के द्वारा की गयी व्याख्या बहुत सीमित थी। यहां तक ​​कि स्थायी भाव निकालने का उनका मूल सुझाव भी स्वीकार्य नहीं था।  भट्ट नायक ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित किया कि चरित्र दर्शकों के सामने नहीं था, जिससे अनुमान लगाना असंभव हो गया।  फिर भी, उन्होंने जो मुद्दे उठाए और एक विचारक के रूप में उनके बाद के विचारकों को रस सिद्धांत की अधिक गहनता से खोज करने में मदद की।


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भट्ट लोलत के द्वारा कि गयी टिप्पणी का खंडन इन्होने किया 
शंकुक के अनुसार- 

(क) विभाव एवं स्थाई भाव में कारण-कार्य संबंध नहीं हो सकता क्योंकि न्याय के अनुसार कारण', कार्य का पूर्ववर्ती है और कारण का नाश कार्य को प्रभावित नहीं करता । पर रस की स्थिति विभावादी के साथ स्वीकार की जाती है।  विभावादी के न रहने पर रस की स्थिति नहीं बन पाती ।

Criticism


अब आप स्वयं से जाने कि जब तक कोई कारण नहीं हो व्यक्ति कोई कार्य को क्यों करेगा और जब कारण को नष्ट कर दिया जाए तो कार्य करने की स्थिति नहीं बनती ऐसी ही बातें शंकुक जी ने कही। 

आगे वे कहते हैं-
 
(ख) भट्टलोलट का उत्पत्तिवाद में स्थाई भाव को रस कहने से यह निश्चित करना संभव नहीं है कि कितनी मात्रा तक उत्पत्ति होकर रति, हास आदि स्थाई भाव रह जाएंगे।

यदि यह माना जाए कि उच्चतम पराकाष्ठा पर पहुंचने पर ही स्थाई भाव रस कहलाएगा तब 'हास्य रस'; जिसका भरतमुनि ने स्मित, हासित आदि  6 भेद किया है तो उसकी संगति क्या रह जाएगी।

(ग)  भट्टलोलट की व्याख्या के विरोध में शंकुक पुनः कहते हैं कि नट- नटी यानी अभिनेता या अभिनेत्री अभ्यास वश अभिनय कला में पारंगत होकर अभिनय करते हैं, भाव विभोर होकर नहीं। अतः उन में रस की दशा नहीं मानी जा सकती । 

"सत्य बात है । कोई भी फिल्म में आप देखते हैं कि एक एक्ट्रेस रो रही है। भाई, वह वास्तव में रोती नहीं है। उसको रोने के लिए डायरेक्टर ने कहा है कि रोने की एक्टिंग करो।  प्रोड्यूसर उसको उसका पेमेंट देंगे। तब उसमें रस की दशा कैसे हम देख सकेंगे।"

(घ)  भट्टलोलट के सिद्धांत की सबसे बड़ी कमजोरी को बताते हुए शंकुक कहते हैं कि यह दर्शक और अभिनय के संबंध की व्याख्या नहीं करता। यदि दर्शक को अभिनय देखकर आनंद नहीं होता है तो उसका उसे क्या प्रयोजन!




समाप्त।

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