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Abstract Beauty: Paintings by S. K. Nag in Oil and Acrylic

Three beautiful Paintings by S. K. Nag | Abstract Acrylic Painting on Canvas  | Home Decor Painting   Content: Dive into the mesmerizing world of abstract art with three stunning paintings by the renowned artist S. K. Nag . These works, created in oil and acrylic on canvas, showcase the artist's ability to blend emotion, color, and form into visually arresting masterpieces. 1. "Whirlscape,  Medium: Oil on Canvas,  Size: 38 cm x 48 cm, 2011 Description: "Whirlscape" captures the chaotic beauty of nature through swirling brushstrokes and an interplay of vibrant hues. The painting evokes a sense of motion, inviting viewers to immerse themselves in its dynamic energy. Shades of blue and green dominate the canvas, symbolizing harmony and transformation, while the burst of pink adds a touch of vibrancy, suggesting hope amidst chaos. Search Description: "Experience the dynamic beauty of 'Whirlscape,' an abstract oil painting by S. K. Nag. Explore thi...

Rasa Theory of Bhattlollat, रस निष्पत्ति व्याख्या भट्टलोलट सिद्धान्त उपचितिवाद

Aesthetics of Bhatt Lollat 

भट्टलोलट के सौंदर्य सिद्धांत


 दोस्तों ।
ललित कलाओं के सौंदर्यसिद्धांत की श्रृंखला में हम लोग विद्वान भट्टलोलट की चर्चा करते हैं। वैसे इनका संबंध रस निष्पत्ति सिद्धांत से रहा है और  नाट्य शास्त्र के रचयिता  भरतमुनि के बाद इनका प्रकाट्य हुआ हैं। 

भरतमुनि ने रस निष्पत्ति के संदर्भ में एक रस-सूत्र दिया था-
"विभावानुभाव व्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:"
अर्थार्थ विभाव अनुभाव एवं व्यभिचारी के सहयोग से रस की निष्पत्ति होती है या रस उत्पन्न होता है।
 इस सूत्र में उन्होंने स्थाई भाव को उल्लेख नहीं किया क्योंकि भरतमुनि का मानना था कि स्थाई भाव ही विभावादी के द्वारा व्यक्त होकर रसत्व को प्राप्त होता है।  उन्होंने खान-पान से संबंधित सामग्रियों से प्राप्त  रस का उदाहरण देते हुए कहा कि जैसे करेला, मिर्ची, नमक, खट्टाई आदि पदार्थ अनुपातिक रुप से आपस में मिला करके पीने में वह एक विलक्षण प्रकार का स्वाद देता है। उसमें अलग-अलग व्यंजन के स्वाद नहीं आते। 
उसी प्रकार नाट्य, कला, काव्य आदि में रस; विभाव, अनुभाव एवं संचारी भाव के मिलन से उत्पन्न होकर प्रेक्षक को या दर्शक को या पाठक को आनंद प्रदान करता है।

rasa THEORY

भरतमुनि के नाट्य शास्त्र की प्रथम टीका, (समालोचना), जो अभिनव गुप्त द्वारा लिखी गई 'अभिनव भारती" में मिलती है जिसमें उन्होंने रस सूत्र की व्याख्या की है और इसमें उनके अन्य समकालीन व्याख्याकारों द्वारा की गई रस सूत्र की व्याख्या भी उधृत है। यद्यपि यह ग्रंथ मूल रूप में आज नहीं मिलता है। 
इस ग्रंथ से पता चलता है कि 9वी और 11वीं शताब्दी के मध्य रस को प्रधान सिद्धांत मानकर रस सूत्र की व्याख्या के लिए  चार बार प्रयत्न हुए जिसके कारण रस को और महत्व प्राप्त हुआ और इसका विस्तार हुआ।

अब यह व्याख्या जिन लोगों ने की है उनके विषय में जाने ।

रस सूत्र की व्याख्या करने वाले मनीषियों में  शंकुक 9वीं शताब्दी, भट्टलोलट नौवीं शताब्दी, भट्टनायक 11वीं शताब्दी और अभिनव गुप्त 11वीं शताब्दी के हैं जिन्होंने क्रमसः मीमांसा, न्याय, सांख्य और शैव दर्शन के सन्दर्भ में व्याख्या की है जो अनुमितिवाद, उत्पत्तिवाद या उपचितिवाद, भुक्तिवाद और अभिव्यक्तिवाद के नाम से जानी जाती है।
bhattLOLAT

 इनमें से भट्टलोलट ने उत्पत्तिवाद या उपचितिवाद की व्याख्या की है। 

आज के इस व्याख्यान में भट्टलोलट के उत्पत्तिवाद के ऊपर विचार किया गया है ।

भट्टलोलट के अनुसार रस निष्पत्ति का अर्थ है- उत्पन्न होना, उपस्थित होना या पुष्ट होना।
इसी दृष्टि से इनके सिद्धांत को उत्पत्तिवाद या उपचितिवाद कहा गया है । भट्टलोलट जी के अनुसार रूप कि अधिकता के योग से रति स्थाई भाव, श्रृंगार रस से उद्भूत होता है और क्रोध अपनी पूर्ण अवस्था में रौद्र रस में दिखाई देता है।

भट्टलोलट ने संयोग की तीन स्थितियों का उल्लेख किया है।

 विभाव को स्थाई भाव का कारण माना है, अतः उत्पाद- उत्पादक संबंध से इनका सामंजस्य होना माना गया है। संचारी भाव एवं स्थाई भाव का संबंध पोष्य-पोषक माना गया है और इसी प्रकार अनुभाव तथा स्थाई भाव का संबंध गम्य-गमक स्वीकार किया गया है।
इस प्रकार विभाव, अनुभाव एवं संचारी भाव के संबंध से स्थाई भाव उत्पन्न होता है और यह रस को उत्पन्न करता है, पैदा करता है या निष्पत्ति होती है।

 रस की अवस्थीति, भट्टलोलट के अनुसार मूलतः अनुकार्य अर्थात ऐतिहासिक पात्रों जैसे भगवान श्री रामचंद्र, श्रीकृष्ण, बलराम इत्यादि  में होती है और यह  अनुकर्ता में भी गौण रूप में होती है। 

आप ध्यान रखेंगे कि यह सारी व्याख्या नाट्य को केंद्र में रखकर की गई है।  इसी के अनुसार अन्य ललित कलाओं में भी सन्दर्भ लिया गया/

अभिनय कौशल से अनुकर्ता में विष्णु, शंकर, कृष्ण आदि के रूप के अनुसंधान की बात से रस की स्थिति स्वीकार की गई है यानी कोई व्यक्ति भगवान राम के रूप का अभिनय अभिनय करता है और उनके रूप को अनुकृत करने के लिए अनुसंधान करता है, तब वह अनुकृत करता है । 
उस अनुसंधान के बल से रस की स्थिति उत्पन्न होती है। स्पष्ट रूप से इस विचार  में सामाजिक या जन सामान्य का कोई उल्लेख नहीं है । भट्टलोलट का रस सिद्धांत मीमांसा दर्शन पर आधारित है।

 लोलट के सिद्धांत की कुछ शक्ति है और कुछ उसकी सीमा भी, यानी कुछ उसकी ताकत है और कुछ उसकी सीमा है।

इनके सिद्धांत की शक्तियां इस प्रकार हैं । 
(क) यह कला में वस्तु के महत्व की स्थापना करता है।
(ख) इनके सिद्धांत के अनुसार नट यानी नर्तक अथवा कलाकार गौण रूप में ही सही किन्तु रस की घोषणा कर नाट्य कला के विकास को एक नई दिशा देता है।

यध्यपि शंकुक ने न्याय दर्शन की दृष्टि से भठ्ठलोलक की स्थापनाओं का खंडन किया। 



 इस प्रकार आपने जाना कि भट्टलोलट की व्याख्या, जो भरतमुनि के रस सिद्धांत की व्याख्या के आधार पर टिकी है उसमें उन्होंने उपचिति या उत्पत्ति को किस प्रकार महत्व दिया और जिसका खंडन उन्हीं के समय के विद्वान शंकुक ने किया।

 शंकुक के द्वारा जो अनुमितिवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया उसके विषय में आप दूसरे पोस्ट में जानेंगे इसका लिंक दिया गया है। 
उम्मीद है आप सभी को इस लेख से अपने पाठ्यक्रम में सहयोग होगा और ज्ञानवर्धक भी होगा।
 
साहित्य पढ़ रहे हैं आप .... थोड़ा सा समझने का प्रयास करें तो बेहतर है।



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